SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द के ग्रह सम्बन्धी विचार १७५ करता है, किन्तु अन्त मे सासारिक प्राणियो द्वारा ही उनका मद चूर हो जाता 'जयवर्धन' मे इला नहीं चाहती कि जय देवता बना रहे। उसे अलौकिक पुरुष बनाकर अतृप्त नही रहना चाहती। अन्तत उसका स्नेह ही विजित होता है। वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार ससार की उपेक्षा करके देवत्व की प्राप्ति की चेष्टा मे व्यक्ति की अहता का ही प्रदर्शन होता है जो कि सहज और स्वाभाविक नही है। अहकार जैनेन्द्र ने मानव जीवन मे कोने से परे अह के निषेधात्मक अहकारमूलक रूप का भी विवेचन किया है । अह भाव आत्मरति से परे प्रतिष्ठा, परिग्रह, पदलोलुपता के रूप मे भी फलित होता है । जैनेन्द्र के अनुसार अहकार हिसाकारी पर्याय है । ससार मे वही व्यक्ति वास्तविक रूप मे पूज्य और, माननीय बन सका है, जिसने स्वय को कुछ भी नही समझा । गाधी, ईसा आदि अपने लिए नही जिए और न ही अपने लिए मरे । उनका जीवन मानवता को समर्पित था । स्वार्थ भाव से युक्त व्यक्ति क्या देवता भी शान्ति नही प्राप्त कर सकता। जैनेन्द्र की 'भद्रबाह' शीर्षक कहानी मे इन्द्र अभिमान के कारण ऊपर उठने की लालसा मे नीचे नही देखना चाहता। वह स्वय को ही सर्वेश्वर समझता है किन्तु उसे चैन नही मिलता वह अविजित होने की लालसा मे व्याकुल रहता है, किन्तु इन्सान कुछ नया होकर ही अजेय बन जाता है । अभिमानी द्वन्द्व मानव जीतना चाहता है किन्तु वह नहीं जानता कि अहशून्य होकर ही किसी को जीता जा सकता है, क्योकि वास्तविक जय तो हृदय को जीतने मे है और वह प्रेम और नम्रता के मार्ग मे ही सुलभ हो सकती है। ___ वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिमानी व्यक्ति का मद प्रेम के समक्ष सदैव ही पराभूत हुआ है। उसके समक्ष सत्य एक है अनेकता स्थिर नही रह सकती । द्वेत १ जैनेन्द्र की कहानिया, नवा स०, पृ० १३५ । २ 'जब वह कुछ नही चाहता तभी वह अजेय है।' -जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया, पृ० १८६ । ३ 'अभिमान रखकर किसी का भाव तोडा नही जा सकता है। पर जिसके पास नही है, उसके पास आसू ले के जायगा तभी जीतेगा।। -जनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया, पृ० १८७ । ४. 'प्रेम मे अस्तित्व गलता है।' जनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० १४० ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy