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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
करते । व्यक्ति विधि का दास होते हुए भी कम के हेतु स्वतन्त्र है ।
जैनेन्द्र अतिशय भाग्यवादी
जैनेन्द्र के साहित्य मे पग-पग पर भाग्य अथवा विधाता की पुकार को सुनकर ऐसा प्रतीत होता हे कि जैनेन्द्र के पात्रो के हृदय मे भाग्य का भूत सवार है और यह शका भी उत्पन्न होती है कि अतिशय भाग्यवादिता कही पात्रो के जीवन को निष्क्रिय तो नही बना देती ? उनकी कुछ कहानियो मे बारबार बेचारे विधाता की याद करनी पड़ती है। 'राजीव और भाभी' मे ३-४ बार विधि के समक्ष व्यक्ति की विवशता का उल्लेख किया गया हे ।' सामान्यत हम नित्य-प्रति के जीवन मे भाग्य का सहारा लेकर मन को सान्त्वना देते है, यह सत्य है, किन्तु बहुत ही छोटी-छोटी बातो पर प्रतिपल विधाता को बीच मे लाना भी उचित नही प्रतीत होता । वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे किसी विशिष्ट परिस्थिति मे ही भाग्य-विधाता का स्मरण नही किया गया है, वरन अत्यन्त सामान्य स्थितियो मे भी विधाता का सहारा लेकर व्यक्ति की विवशता को वणित किया गया है। ---'कल्याणी' मे कल्याणी किसी के घर जाने में भी अपनी इच्छा-शक्ति पर विश्वास नही करती और कहती है---'अच्छा । भाग्य होगा तो क्यो न आऊगी ।२
भाग्यवादिता प्रास्थामूलक
जैनेन्द्र की भाग्यवादी प्रवृति इस तथ्य की ओर सकेत करती है कि वे
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(अ) 'भाग्य ही तो है। जब वह खुले तो उस कोष मे से क्या-क्या नही
निकलेगा।' पृ० स० २६ । (आ) 'वही से भाग्य देव भी पलट कर बरस पड़ने लगे'--१० स० २६ । (इ) 'किन्तु जब सिर पर दुर्दैव ही खेल जाए तो विधाता के मन का . हाल भला कौन जान सकता है।'---१० स० ३१ । (ई) 'जब राजीव ने मोटर की बात मन मे पक्की कर ली तब सब
प्रपचो के रचयिता बाबा विरचि ऊपर बैठे-बैठे मुस्कराए होगे। कहते होगे-देखो लडके की बात--अरे,--हम फिर कुछ ठहरे ही नही । जो ये दुनिया के छोकरे हमे बिन बूझे ही सब करने लगेगे तो हो लिया काम ।'
--जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', पृ० स० ३१ । जैनेन्द्र कुमार 'कल्याणी', पृ० स० ७६ ।
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