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________________ जैनेन्द्र और समाज १८५ स्वप्न देखती है, वे पूर्ण नही हो पाते । अभावग्रस्त स्थिति उसे बाहर से आए आकर्षणो की ओर उन्मुख करती है, क्योकि यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि विषम मन स्थिति मे व्यक्ति का झुकाव त्वरा और बाह्य आकर्षण की ओर ही अधिक होता है। लाल का भव्य व्यक्तित्व उसे इसीलिए प्रभावित करने मे सक्षम हो सका है, ऐसी स्थिति मे घर का वातावरण असन्तोषजनक हो जाता है। पति-पत्नी का आत्मिक मिलन सम्भव नही हो पाता। 'कल्याणी' मे कल्याणी और उसके पति का सम्बन्ध इतना शकाग्रस्त होता है कि उनमे एकदूसरे के प्रति समर्पण भाव जाग्रत होने का प्रश्न ही नही उठता। जैनेन्द्र के अन्य उपन्यासो मे पति की ओर से पत्नी को प्रेम सम्बन्ध की पूरी छूट रहती है। पति कभी भी पत्नी के प्रति उत्कुद्ध नही होते, किन्तु कल्याणी अपने पूर्व प्रेमी के प्रति अपने प्रेम-भाव को प्रकाशित करने में असमर्थ होती है । उसका प्रेम भीतर ही भीतर सुलगता रहता है। उसकी समस्त वेदना के मूल मे प्रेम की अप्राप्ति भी है । 'मुक्तिबोध' तथा 'अनन्तर' मे पति के जीवन मे प्रेमिका का प्रवेश होता है। __यद्यपि यह सत्य है कि दाम्पत्य जीवन को घर की दीवारो मे ही सीमित कर देने से जीवन बोझ बन जाता है। सुखी जीवन के लिए आवश्यक है कि पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रति विश्वस्त हो, उनमे अप्रेम अथवा घणा का भाव नही होना चाहिए। जीवन में प्रत्येक स्त्री-पुरुष पति-पत्नी के अतिरिक्त बाहर से मिलने वाले प्रेम के भी प्रार्थी है। स्नेह और वात्सल्य के अतिरिक्त उनमे रागात्मक भाव की ओर भी उन्मुखता होती है। यह जीवन का सत्य है, सत्य को छिपाकर छल से कोई प्रादर्श साधना नही हो सकती। जैनेन्द्र के अनुसार समाज के नियम समय-सापेक्ष होते है। सत्य के मार्ग मे सदाचार बाधक नही बन सकता । सत्य को दृष्टि मे रखते हुए सदाचार का रूप भी परिवर्तित होना आवश्यक है। जैनेन्द्र वैवाहिक जीवन मे प्रेम को अनैतिक कृत्य नही मानते । वे नि सकोच रूप से अपनी समस्त कहानियो और उपन्यासो मे ऐसी विचारधारा १ 'सामाजिक मर्यादा सत्य की साधना की राह मे आप ही बनती है । आशय कि समाज की मर्यादा स्वय स्थिर नही है, विकासशील है । सदाचार मे प्राचार को पीछे मानिए, सत् पहले है । सत् के अनुसन्धान मे आचार को आगे बढ़ते ही जाना है । इस तरह रूढ सदाचार और सजीव सदाचार मे हर कार्य मे कुछ अन्तर देखा जा सकता है।' -जैनेन्द्रकुमार 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० स० ६७ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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