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जनन् का जीवन-दर्शन
जेनेन्द्रजी के अनुसार मानव जीवन के सर्वागीण विकास के लिए बुद्धि के साथ भावना का योग भी प्रतिवाय हे । भावगत व्यावहारिकता मे मानव जीवन का पत्येक पहलू समाविष्ट हो जाता है । साज स वैज्ञानिक युग मे एकोदेशी हाकर गन्तव्य की प्राप्ति करना प्रसम्मा है | निरी भौतिकता उसी परस्वप से अपूरण है, जैन श्रात्मा के समान में पारणहीन शरीर का ग्रकपण । वस्तुत जैनेन्द्र ने विज्ञान और प्रत्यात्मवाद से सामन्जस्य स्थापित करके जीवन के प्रति आस्था उत्पन्न की है । यही से जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन के मा तत्व अभेदत्व अथवा प्रतिवाद का प्रारम्भ होता है । उनकी प्रभेदात्मक दृष्टि साहित्य मे विभिन्न शन्दा रा जीवन क विविध क्षेत्रो मे अभियक्ति पाप्त करती है ।
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जैनेन्द्र ने जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्न का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया हे । पुरा समाधान अथवा प्रश्नाभाव की स्थिति का व नही स्वीकार करत, क्योंयि जीवन मनन्त सम्भावनाओ से पूरा है । उसकी प्रगति काल की गनन्त व्याप्ति तक सम्भव है । अत कामी रामान समय सापेक्ष ही हा सकता है सनातन नही ।
मानव-ज्ञान श्रौ मानव-परिस्थिति से सम्बन्धित अनेक प्रश्नो पर विचार और जीन के प्रति उनका दृष्टिकोण
वेन्द्र का साहित्य उनके जीवन सघर्ष से उद्भूत मानसिक गरि हृदयगत प्रवृति का ही परिणाम है । वे अपने जीवन की छाटी छोटी गा से भी ग्रात्मवान प्राप्त करते रहे, उसे ही उन्होने कल्पना के महारहित्य के रूप में अभिव्यक्त किया है । उन्हाने 'स्व' से परे पर' की साका अपने जीवन में ढाल कर अपने भावो और विचारा का पुट कर यक्त किया है । जेनन्द्र न मानव-कर्म के द्वारा उसके मूल स्त्रात का पकने का प्रयास किया है । सामान्यत ras जीवन की घटनाओ जान म फसकर उन्ही के विवेचन मे अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझा है, किन्तु जैनेन्द्र ने प्रत्यक्ष नगत से अप्रत्यक्ष की ओर अथवा स्थूल से की प्रार जाने का प्रयास किया है । उन्होने जीवन की समस्त नेपाया घटनाचा के समक्ष एक प्रश्नचिह्न लगा दिया है । क्या ? कैसे ? का प्रश्न निरन्तर उनके प्रवचेतन में घुमता रहता है । उन्होने इस प्रकार के प्रश्न को स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त न करके संकेतमान में काम चलाया है । जीवन-सरिता के मूल स्रोत का उस रूप में व्यक्त किया है कि पाठक अन्त में सावने का विवश हो जाता है कि ऐसा क्यो ?