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________________ जैनेन्द्र और धर्म ६६ विस्तार प्रोद्योगीकरण के विस्तार के हेतु होने वाला युद्ध पारस्परिक स्नेह को समाप्त कर देता है । जैनेन्द्र के अनुसार सघर्ष की स्थिति केवल सत् और असत्, न्याय और अन्याय के मध्य ही स्वीकार की जा सकती है। ऐसी स्थिति मे युद्ध धर्म भावना से अनुप्राणित होकर परिचालित होता है। क्षत्रिय का धर्म सत्य की रक्षा के हेतु युद्ध करना है। यही उनका धर्म है। जैनेन्द्र व्यक्ति के धर्म को ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि की सीमानो से मुक्त कर मानव धर्म के रूप में देखना चाहते है । वस्तुत जैनेन्द्र व्यक्ति की सार्थकता धर्ममय होने मे ही स्वीकार करते है। उनका विश्वास है कि 'गाधी के बाद हमने भौतिक पर ध्यान दिया है, नैतिक की तरफ दुर्लक्ष किया है, फिर भी उस नैतिक भाषा का उच्चार और उद्घोष करते आए है। ऐसे बाहर और अन्दर की स्थितियो मे फर्क पडा और हमारी साख टूट रही है ।'२ जैनेन्द्र के अनुसार नेता त्याग और सेवा-भाव द्वारा ही धर्मवत आचरण कर सकता है, जो व्यक्ति सेवा के हेतु पद की कामना करते है, वे वास्तव मे दुनिया को धोखा देते है । सेवाभावी के लिए पद का लोभ निरर्थक है, किन्तु राज्य-व्यवस्था के हेतु यदि नेतृत्व आवश्यक ही है तो यह आत्म केन्द्रित होना चाहिए। उसमे शासक की अपेक्षा सेवक का धर्म प्रमुख होना चाहिए। जैनेन्द्र की दृष्टि मे अहिसा जैनेन्द्र की धार्मिक-दृष्टि व्यक्ति की ही समस्या का समाधान न होकर अन्तर्राष्ट्रीय और विश्वव्यापी समस्या का समाधान है । उसमे राष्ट्रवाद का निषेध किया गया है। जैनेन्द्र की अहिसक दृष्टि सत्य को सीमित करने के पक्ष मे नही है। उनके साहित्य की आत्मा अह-विसर्जन और अहिसा मे ही निहित है। जैनेन्द्र के मनुसार अहिसा एक अखड सत्य है, यह आत्मिक धर्म है। अहिसा धर्म के लिए कोई अपवाद नही है। क्योकि वह परम धर्म है । परम धर्म तो निरपवाद होता ही है। व्यक्ति, परिस्थिति और देश-काल आदि के भेद से उसके स्वरूप मे कोई अन्तर नही पडता । जैनेन्द्र ने स्वधर्म के पालन पर विशेष बल दिया है। स्वधर्म-पालन के मूल मे उनकी अहिसक नीति ही विद्यमान है। १. जैनेन्द्र 'कालधर्म' (जैनेन्द्र की प्रतिनिधि कहानिया), दिल्ली, १९६६, पृ० २३६-राज्य मानव धर्म के सिद्धातो के अनुसार चलना चाहिए।' 'काल धर्म', पृ० २३५ । २ जैनेन्द्रकुमार 'मुक्तिबोध', पृ० ५० । ३ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', १९५६, पृ० १४७ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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