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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
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से परिपुष्ट है। मार्म ने भौतिक जगत में अधिक से अधिक उत्पादन द्वारा साम्ग स्थापना का हिसक प्रयास किया था। किन्तु जैनेन्द्र की नीति गाधी की गहिरा नीति का ही प्रतिफल है। जैनेन्द्र के अनुसार साम्यवाद मे समस्त सम्पदा सार में केन्द्रित हो जाती है, अतएव उसमे व्यक्ति स्वातन्त्र्य का गवकाश नही रहता। जैनेन्द्र का प्रादर्श भौतिक साम्य न होकर प्रात्मपरक हे । उनले प्रनमार प्रत्येक को अपनी योग्यता के अनुसार अर्थ की प्राप्ति होनी चाहिए । गमाज की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए श्रेणी विभाजन आवश्यक है। गरीब पार अमीर का भेद समाज से मिटाया नही जा सकता। जैनेन्द्र के अनुसार आर्थिक दृष्टि से उत्पन्न भेद-भाव को मिटाने के स्थान पर व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य सहानुभूति और सहृदयता का सम्बन्ध अनिर्वाय है । गरीब प्रगीगे के द्वारा अपनी गरीबी के कारण अपमानित तथा शोषित नही होना चाहिए । जैनेन्द का मूलादर्श जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे प्रेम और दया का विस्तार करता है।
जनेन्द्र के उपन्यारा सोर कहानियो मे स्वार्थ-रत पूजीपतियो के प्रति जो गामाश । न किया गया है, वह उनकी मानव-नीति का ही पोषक है। 'विवत' में गिन्द्र ने समीरो की शान-शोकत तथा विलास का बहुत ही व्यग्यात्म ( रा किया है। जैनेन्द्र के अनुसार अर्थ की सार्थकता उसके परमानी होन म है। 'कल्याणी' तथा 'प्रनन्तर' में उनके विचारो की पुष्टि वाटगत होनी है। अर्थ-नीति राजनीति के घेरे मे प्राबद्ध होकर मानवनीति तथा प२ गार्थ मनक प्रादर्शों से परे हो जाती है। जैनेन्द्र अर्थ-नीति को गर्म नीति के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते है। उनकी परमार्थिक दृष्टि के मूल मे धर्मास्था ही केन्द्रीभूत है।
वात जनन्द्र ने अर्थ शास्त्र के द्वारा मानव जीवन की विपम परि
१ 'पत्थरो से (हीरा, पत्थरो से तात्पर्य हीरा-पन्ना आदि से) बच्चे खेलते है,
लेकिन अमीर भी खेलते है।' --जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', १६५३, दिल्ली, प०म०, पृ०६४ । 'अर्थगार की बुनियाद गे यह मान्यता है कि इन्सान स्वार्थी है । परमार्थ की जैसी कोई कल्पना ही उस शारत्र के पास नही है। ..मेरा अनुमान
कि मनुष्य की गहराई में पडे धर्म नैतिक भाव की बुनियाद पर नयी अर्थ-रचना का प्रारम्भ हो सकता है और गाधी का प्रयत्न उसी का मूत्रपात था। ---जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', दिल्ली १९६२, प्र०स०, पृ०१८६ ।