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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
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स्वय ही उस देश मे रग जायगा । यही कारण है कि जैनेन्द्र के साहित्य मे धर्म-तत्व को ढ्ढना सरल नही है । बाह्य वस्तु शीघ्र ही पकड मे या सकती है, किन्तु पात्रो मे अन्तनिहित सत्य के ज्ञान के लिए उनकी मात्मा के गुरण को समझना आवश्यक है । जैनेन्द्र ने अपने सैद्धान्तिक निबन्धो में प्रत्यक्ष रूप से जैन धर्म अथवा धर्म के अन्य विविध रूपों का वर्णन किया है, कि तू स्थूल सप्त से देखने पर हम उनकी धार्मिकता का पूर्ण ज्ञान नही प्राप्त कर सकते | जैनेन्द्र के उपन्यासो मे धर्म के किसी वाद का प्रचार नही किया गया है, उनके पात्रो का जीवन इस प्रकार से ढाला गया है कि वे अपने आचरण मे अपनी धामिकता प्रभास देते है |
जैनेन्द्र ने जैन धर्म की भाति वस्तु के स्वभाव को ही धर्म माना है, किन्तु व्यक्ति के स्वभाव को ही धर्म मान लेने से धर्म का स्वरूप स्पष्ट नही हो पाता । प्रत्येक व्यक्ति मे कुछ व्यक्तिगत भिन्नताए होती है तथा उसके प्रत्येक कर्म का धर्ममय होना भी प्रावश्यक नही है । जैनेन्द्र ने व्यक्ति या वस्तु की प्रात्म-प्रकृति को ही धर्म माना है ।" व्यक्ति के शरीर में ही उसकी सम्पूरणता नही रहती, शरीर तो स्थूल और बाह्य रूप है, किन्तु शरीर के अन्दर एक अत्यन्त सूक्ष्म तत्व आत्मा के रूप में विराजमान है । आत्मा जड जगत के समस्त बन्धनो से मुक्त हे । श्रात्म-तत्व की प्राप्ति ही जीवन का परम धर्म है । जेनेन्द्र के समस्त उपन्यास और कहानियो के पात्र उसी आत्मतत्व के साक्षात्कार म प्रयत्नशील दिखाई पडते है । 'जयवधन', 'कत्याणी', 'त्यागपत्र', 'परख' प्रादि उपन्यासो म ग्रह विसर्जन द्वारा श्रात्मतत्व की प्राप्ति का प्रयास किया गया है। धम की पूर्णता ग्रह के विसर्जन मे भी सम्भव हो सकती है। जब व्यक्ति 'पर' के हेतु 'स्व' का त्याग करता है और इस कर्म मे उसकी सन्त्री निष्ठा विद्यमान रहती है, तभी उसे अपने कर्म की सार्थकता का अनुभव होता है ।
जैनेन्द्र ने धर्म के शास्त्र सम्मत रूप को भी स्वीकार किया है । धर्म शब्द 'धा' धातु से निसृत है । 'धा' का अर्थ है धारण करना । धर्म की धारणा शक्ति के कारण ही सृष्टि टिकी हुई है । मनुष्य का धर्म सामारिक बन्धनो से मुक्त होकर उत्तरोत्तर ईश्वरोन्मुख होता है । हिन्दू धर्म में यह स्वीकार किया गया है कि धर्म की धारणा शक्ति की क्षमता 'आत्मा' में ही निहित है । अत प्रत्येक कर्म का मूल आत्मकेन्द्रित होना चाहिए और समस्त कर्मों का ईश्वर की
जैनेन्द्रकुमार,
१ जैन धर्म को भी इतना जानता है कि वह श्रात्म धर्म है' 'मन्थन', दिल्ली, प्र० स० १६५३, पृ० ६१ ।