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जैनेन्द्र मोर धम
किया है । कुछ जैन कथाए तो उनके जीवन का प्रग बन गई, उसके प्रभाव से उनका हृदय प्रद हो उठा। उनका जीवन विनम्रता और निरहकारिता का प्रदर्श बन गया । जेनेन्द्र के प्रनुसार जैन धर्म किसी विशिष्ट समय मे विशिष्ट व्यक्ति द्वारा नही बनाया गया था । यह तो जीवन-धर्म है । ईसाइयो ने ईसा को ही 'गॉड अथवा ईश्वर' माना है, किन्तु जैनियो ने महावीर स्वामी को अपना
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आदि पुरुष नही वरन नोबीमवा तीर्थकर माना है । उनके अनुसार मनुष्य ही समस्त सांसारिक वासनाओ और दोपो से मुक्त होकर कैवल्य को प्राप्त करता हे । कैवल्य प्राप्त व्यक्ति ही ईश्वर के सदृश्य है । महावीर स्वामी के तप पूत व्यक्तित्व ने जनेन्द्र को प्रत्यधिक प्रभावित किया है । वे उन्हे अमर विभूति मानते है । उनकी मृत्यु हमे उनसे दूर नही कर सकती । "
जैनेन्द्र हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार है । साहित्यकार का भी एक धर्म होता है, उसे साहित्य का धर्म कहते है । साहित्य-सृजन की कुछ निश्चित मर्यादा होती है, उनसे हटकर साहित्यकार अपने साहित्य के महत्व को अक्षुण्य नही रख सकता | नेतृत्व करना, उपदेश देना ग्रथवा प्रचार करना साहित्यकार काम नहीं है। यही कारण हे कि जैनेन्द्र जैन-धर्म के समर्थक होते हुए भी उसके प्रचारक नहीं हो सके । जैन धर्मावलम्बियों की यह तीव्र अभिलाषा थी कि जैनेन्द्र जन-साहित्य की रचना करे अथवा अपने साहित्य द्वारा जैन-धर्म का प्रचार करे । किन्तु जैनेन्द्र के प्रनुसार जैन साहित्य लिखना ही जैन धर्मावलम्बी होने का सूचक नही है ।' धर्म तो आत्मा का गुण है । वह साहित्य की आत्मा में व्याप्त होना चाहिए, उसके प्रचार के द्वारा हम अधर्मोन्मुख हो जाते है, क्योकि प्रचार में ग्राग्रह होता है । प्राचीनकाल के साहित्य पर धर्म की ऐसी छाप पडी कि उसे हम वाड्मय कह सकते हे, साहित्य नही । जैनेन्द्र के अनुसार जिस धर्म के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धा होती है, उसका प्रभाव अनायास ही साहित्य में परिलक्षित होने लगता है । साहित्यकार को उसके लिए प्रयास नही करना पडता, क्योकि प्रयास में प्रचार का प्राग्रह रहता है। सच्चा धार्मिक
१ जैनेन्द्र 'मन्थन', दिल्ली, १९५३, पृ० २२१ ।
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'क्या जो में लिखता हू वह साहित्य जैन नही है। क्या जैन धर्मग्रन्थो मे रंगत नामावली तथा शब्दावली के प्रयोग से जैन बन जाता । उस सूरत ऐसा भी तो हो सकता है कि वह साहित्य जैन तो हो साहित्य हो ही
न ।'
जैनेन्द्रकुमार ' परिप्रेक्ष', प्र० स०, दिल्ली, १९१५, पृ० ४२ ।
३. परिप्रेक्ष, पृ० ४२ ।