SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन करते हुए भी उसे अन्तिम सत्य नही माना है । वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार 'अह भौतिक जगत का एक अनिवार्य सत्य है । शाश्वत सत्य आत्मा तथा परमात्मा है। ससार की स्थिरता तथा सक्रियता के हेतु ग्रह का अस्तित्व अनिवार्य है। जैनेन्द्र की अहता अश रूप होते हुए भी ब्रह्म से पृथक नही है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे प्रह जैनेन्द्र की दृष्टि मे अह अशता अथवा खण्डता का बोधक है। पूर्ण अथवा समग्र और अखण्ड एकमात्र 'भगवत्-भाव' है। अह मे उस समग्रता का अश कम है । वह ससार की सापेक्षता मे ही पूर्णता प्राप्त कर सकता है । प्रत्येक व्यक्ति मे अपना निजत्व होता है, वही उसका अहभाव है । इस प्रकार अह सख्यातीत है । वही जगत मे अनेकता का हेतु है । मै तुम का भेद अनेकता के कारण हो विकसित होता है । अशरूप अह अखण्डता की प्राप्ति के हेतु प्रयत्नशील रहता है। जैनेन्द्र के साहित्य मे अनेकता के मध्य एकता को स्थापित करने के हेतु अह की भगवतोन्मुखता को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया गया है। अह का स्वरूप जैनेन्द्र ने शकर के सदृश्य जगत को मिथ्या नही माना और न ही साख्य का निरीश्वरवादी दृष्टिकोण ही अपनाया है । जैनेन्द्र ने मानव जीवन की समग्र विवेचना की है । 'अह' का अस्तित्व जगत के अस्तित्व मे ही सम्भव हो सकता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे अह की पार्थक्य और अस्तित्वमूलक अर्थवत्ता स्वीकार करते हुए यह प्रश्न उठता है कि अह का स्वरूप वस्तुमय (जड) है अथवा चेतन ? पाश्चात्य दर्शन मे अधिकाशत अह को वस्तु (आब्जेक्ट) रूप मे स्वीकार किया गया है। लाइबनीज आदि विचारको के अनुसार अह प्रत्ययगत तथा जड है। भारतीय दर्शन मे शकर ने ही विशिष्ट रूप से अह को आत्मरूप (सब्जेक्ट) मे स्वीकार किया है। जैनेन्द्र के साहित्य मे अह को कर्ता के रूप में स्वीकार किया गया है। अह मे भाव है जो 'पर' से पार्थक्य को इगित करता है। सब्जेक्ट और आब्जेक्ट का पूर्ण भेद स्पष्ट नही हो सकता, १ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', प्र० स०, दिल्ली, १९५६, प्र० स० २२४ । २ 'अस्तित्व स्वय मे प्रश्न नही होना चाहिए। प्रश्न होता है जब अस्तित्व अलग होते है । हम सब अलग ही है। अस्तित्व की जगह हम अस्तित्व है। इस अस्मि के भाव मे अस्ति से अपना अन्तर डालते है।' -जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ८५ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy