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________________ जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार १५१ मे शुन्यता भाव रूप मे स्वीकृत की गई है, अस्तित्व के निषेधात्मक रूप मे नही। शकर ने अह को आत्मगत सत्य (सब्जेक्टिव) के रूप मे स्वीकार किया है। उन्होने वस्तुगत (आब्जेक्टिव) सत्ता का निषेध किया है । साख्य दर्शन मे अहगत अनेकता को सत्य रूप मे स्वीकार किया है । डा० राधाकृष्णन ने 'इडियन फिलासफी' मे साख्य दर्शन की अनेकता की ओर निर्दिष्ट किया है। उनके अनुसार साख्य दर्शन मे जीवात्मानो के अनेकत्व के लिए कोई विवाद नही है।' साख्य दर्शन मे प्रकृति और पुरुष दो पृथक् तत्व है । पुरुष भोवता है और प्रकृति भोज्य है। पुरुष को ही आत्म (सेल्फ) रूप मे स्वीकार किया गया है । पुरुष की स्थिति प्रकृति से पूर्णत स्वतन्त्र है । पुरुष अर्थात् प्रात्मा शरीर से तद्गत नहीं है।' पुरुष स्वय प्रकाश्य है । पुरुष आन्तरिक विषय है और प्रकृति वस्तु है। पुरुष के आत्मत्व तथा जीव के अह भाव मे अन्तर है । अहकार से युक्त पुरुष ही जीव (अह, मै) है । वास्तविक आत्मा जीव से परे और आन्तरिक है । वस्तुत जैनेन्द्र की आत्मगत एकता साख्य के पुरुष की समानार्थी ही है। ____ विशिष्टाद्वैतवादी रामानुज के अनुसार 'अह बुद्धि" के जाग्रत होने पर ही अहता (स्व) का बोध होता है । साख्य दर्शन की अनेकता जैनेन्द्र के अहभाव की पुष्टि करती है तथा पुरुष का निरपेक्ष रूप भी जैनेन्द्र की आत्मता के समकक्ष है, किन्तु साख्य दर्शन की अनीश्वरवादी विचारधारा जैनेन्द्र की आस्तिकता से सगत प्रतीत नही होती । जैनेन्द्र ने प्रकृति को अहयुक्त माना है इस दृष्टि से ही केवल उन्हे साख्य दर्शन के सम्पर्क मे समझा जा सकता है। साख्य दर्शन मे अनेकता पर प्रश्रय दिया गया है । जैनेन्द्र ने अनेकता को स्वीकार १ डा० राधाकृष्णन् 'इण्डियन फिलासफी', पृ० २८१-२८२ । २ डा० राधाकृष्णन् 'इण्डियन फिलासफी', पृ० २८५। ३ कमलाराय 'कान्सेप्ट आफ सेल्फ', पृ० १८१ । ४ कमलाराय 'द पुरुष इज दि एटरनल सब्जेक्ट ऐण्ड प्रकृति इज दि एटरनल आब्जेक्ट', प० स०१८१ । Vijnanabhiksu says that Purusa with ahamkara is the Jiva and not Purusa itself The Ego (Jiva is an item in the natural would while the Purusa is eternally one with itself The Empirical Ego is the mixture of free spirit and mechanism of Purusa and Prakrti.' 'Concept of Self' (p. 184) Aham budhi consciousness is the characteristic essence of the Individual "Concept of Self' (P 188)
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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