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________________ जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण २६३ मे द्वैत के कारण ही तो जीवन मे गति आती है । अद्वैत क्रियाशून्य है । स्त्रीपुरुष का द्वैत सृष्टि का आधार है । 'स्व' 'पर' का भेद लेकर सृष्टि का विकास सम्भव होता है । तथापि द्वैत मध्य की स्थिति है, अन्त नही है । जैनेन्द्र के साहित्य का अवगाहन करने से विदित होता है कि जीवन की धारा दो तटो के मध्य प्रवाहित होती है । परन्तु तटो का द्वैत ही सत्य नही है । अतिम स्थिति अद्वैत में ही प्राप्त होती है । जैनेन्द्र के साहित्य मे इस सत्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति प्राप्त होती है। 'जयवर्धन' मे सत्य का सश्लिष्टरूप स्पष्टत दष्टिगत होता है। जीवन अखण्ड . इकाई ___ जीवन सश्लेपण का तात्पर्य जीवन की समग्रता का बोध कराना है । जैनेन्द्र के अनुसार सत्य का स्वरूप काट-छाट के मार्ग से कही भी उपलब्ध नही हो सकता । उन्होने अपने साहित्य मे समग्र जीवन की अभिव्यक्ति की है। समग्रता में भलाई और बुराई, महानता और तुच्छता, आदर्श और यथार्थ सभी समाविष्ट है । जीवन की वह अभिव्यक्ति सच्ची नही है, जो कुछ को छोड़ती और कुछ को अपनाती है। उनका यह दष्टिकोण पूर्णत सत्य प्रतीत होता है, क्यो कि जिस प्रकार २४ घण्टे का दिन पूरी इकाई है । यदि सूर्य के प्रकाश में दिन को हम अपने लिए उपादेय माने और रात्री के अधेरे को तिरस्कृत कर दे, तो ऐसा सम्भव नही हो सकता । दिन की पूर्णता मे रात्रि और दिन गभित है। इस दृष्टि से जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त व्यक्तित्व की पूर्णता सहज और सत्य है । उन्हे चाहे हम चर्चा मे ले अथवा न ले किन्तु उनका अस्तित्व नही मिट सकता । जीवन पूर्ण इकाई है, उसके कुछ अशो के सत्कार और कुछ के तिरस्कार द्वारा तिरस्कृत वस्तु या व्यक्ति का निषेध ही सम्भव हो सकता है। जैनेन्द्र में जो कुछ भी दृष्टिगत होता है, वह सत्य के कारण ही है । जैनेन्द्र के अनुसार सत्य से बहिर्गत कुछ भी नही है । होने मे ही सत् का भाव समाहित है। काल-खण्ड जैनेन्द्र के साहित्य में एक मात्र अखण्ड सत्य की स्वीकृति पर ही बल दिया गया है। देश और काल मानव निर्मित किसी परिमित आयाम से परिबद्ध नही है। काल अनन्त है । भूत, वर्तमान और भविष्य सभी उसकी अनन्तता में समाहित हैं। बाह्य रूप में सुविधा हेतु दिखायी देने वाली कालगत सीमा शाश्वत नही है । बीते क्षण और भावी क्षण के बीच कोई विभाजन-रेखा नही
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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