SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन असमर्थ है । जैनेन्द्र ईश्वर की अनुभूति के क्षणों मे इतने विभोर हो जाते है कि उन्हे अपने अस्तित्व का भी भान नही रहता । वे सिद्ध करने का प्रयत्न नही करते कि ईश्वर है, वरन् उनका विश्वास हे कि वही हे ।' उनका विश्वास है कि नदिया सब समुद्र में गिरती है इसी तरह विश्वास सब ईश्वर में पहुचता है । विश्वास मे हम अपने प्रापको छोड दे तो ईश्वर के सिवा पचने लिए हमारे पास कोई गति नही रह जाती है । यह विश्वास चरम शक्ति के प्रति होता है । यह आवश्यक नही कि उस शक्ति का रूप एक ही हो । हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख आदि धर्मों के विश्वास भिन्न है, किन्तु दूसरा कोई प्रतर नही पडता । समस्त विश्वास एक उसी चरम सत्ता मे ही समाहित होते है । अत ईश्वर के अस्तित्व के लिए विवाद उठाना निरथक है । विवाद मै अथवा मेरे मत की स्वीकृति के हठ मे से ही प्रादुर्भूत होता है । किन्तु ग्रह अथवा 'मैं' के विसर्जन मे भेद या मतवाद की स्थिति नही रह जाती । सब आत्मा उस परमात्मा की अश मात्र हे । सब मे उसका ही प्रकाश व्याप्त | जैनेन्द्र के अनुसार जब तक ग्रादमी मे तर्क मौजूद हे तब तक ईश्वर विवाद और व्यर्थता का विषय ही बना रहने वाला है । वृद्धा का विषय नहीं हो सकता । ईश्वर के प्रति विश्वास रखने के कारण ही व्यक्ति के जीवन की नाना कठिनाइया सहज ही दूर हो जाती है । वह हमे कष्ट देकर कवन सचेत करता है । रवीन्द्रनाथ टैगोर का भी यही विश्वास हे । उनकी दृष्टि मे प्रेम के १ जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया' - सम्पादक शिवनन्दनप्रसाद, दिल्ली, प्र० स०, १६६६ 'वह है, वह है ।' 'कहा है ? कहा ' सब कही, सब कही है । और हम हम नही । वह है । पृ० ६३ । 'ईश्वर की व्यक्तिगत अनुभूति के साक्षी पूर्व मे ही नही है । सुकरात और प्लेटो, प्लोटिनस और पोफिरी, प्रागस्टाइन और दाते तथा अन्य असल्य व्यक्ति ईश्वर के अनुभव के साक्षी है । ईश्वर का अनुभव सृष्टि के यादि से ही लोगो को होता रहा है और वह किसी देश या जाति तक सीमित नही है ।' ? -- डा० राधाकृष्णन् 'जीवन की प्राध्यात्मिक दृष्टि', पृ० स० ५२८ । २ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० ८५ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy