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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
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कारण ही परमात्मा कष्ट भेजता है । वस्तुत ईश्वर का विश्वास प्रादमी की ast मदद करता है । जैनेन्द्र के पात्र अपने जीवन की विषम स्थितियो मे भी ईश्वरीय आस्था का सहारा लिए हुए जीवनयापन करते है । प्रास्था के रहते हुए निराशा प्रथवा विश्वास की भावना या ही नही सकती । व्यक्ति को प्रत्येक कर्म के फल मे होनहार की प्रेरणा ही दृष्टिगत होती है । 'प्रधे का भेद' मे अधा भिखारी, ‘त्यागपत्र' की मृणाल, सुखदा आदि पात्र अपने अन्तर मे निहित विश्वास के कारण भी छूटने नही पाते । 'समय, समस्या और सिद्धान्त'
जैनेन्द्र ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि 'जिसके प्रति अटूट विश्वास और श्रद्धा है, उसके द्वारा निराशा, पराजय मिलने पर अश्रद्धा उत्पन्न होती है । किन्तु सूक्ष्मता से देखे तो प्रश्रद्धा और अवज्ञा की यह घोरता विश्वास की टूटन नही है, हमारी अपेक्षाओ के टूटने की ही प्रतिक्रिया है । '
अद्वैत दृष्टि
जैनेन्द्र मूलत अद्वैतवादी है । ब्रह्म एक है । हर दो के बीच मे एक्य है । उनकी दृष्टि मे द्वैत टिक नही पाता । जहा द्वैत दृष्टिगोचर भी होता है, वह दो नही, वरन् एक ही परम सत्य की अभिव्यक्ति है । एक ही सत्य के दो रूप हे । जैनेन्द्र के अनुसार जिस प्रकार फल और रस मे कोई अन्तर नही है । उसी प्रकार ईश्वर के विविध रूपो मे भी कोई पार्थक्य नही है । हमारी भाषागत सीमा ही भेद उत्पन्न कर देती हे अन्यथा परम सत्य एक ही है । जैनेन्द्र की अद्वैतवादी विचार-धारा दार्शनिक क्षेत्र मे कोई नवीन देन नही है । प्राच्य तथा पाश्चात्य अधिकाश दार्शनिको में अद्वैत तत्व की ही प्रधानता है । वैदिक काल से लेकर धुनिक काल ( २०वी शती) तक के दार्शनिको मे यही धारा मुख्यत मान्य रही है । जैन दार्शनिक अनीश्वरवादी होते हुए भी एक ही 'परम सत्ता' (तीर्थाकर) पर विश्वास करते है । गीता में वर्णित सर्वोपरि ब्रह्म एक निर्विकार सत्ता है ।
जैनेन्द्र की अद्वैतवादी विचारधारा विशुद्ध अद्वैतवादियो की सी नही है । यद्यपि वे कही भी उपनिषदो के प्रभाव को स्वीकार नही करते, तथापि उनके साहित्य अन्तत भक्ति भावना के मूल मे उपनिषदीय विचारो की झलक स्पष्टत
त होती है । सम्भवत भारतीय दर्शन के तत्व संस्कारवश यत्र-तत्र दिखाई देते है । भक्ति भावना से पूर्ण होने के कारण उनके ईश्वर सम्बन्धी विचार पूर्ण
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या प्रौर सिद्धान्त' (अप्रकाशित ) पृ०स० १२६ । २ 'एको सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति'
जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', १६६८, प्र० ९५ ।