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________________ जैनेन्द्र और धर्म १०७ अनन्तर के प्रसाद के जीवन और विचारो मे कोई अन्तर नहीं है। जैनेन्द्र के विचारो के सम्बन्ध मे एक निश्चित धारणा नही निर्धारित की जा सकती। उनके साहित्य का सैद्धान्तिक पक्ष उनके गभीर चिन्तन-मनन का परिणाम प्रतीत होता है, किन्तु उनके साहित्य सृजनात्मक पक्ष के यत्र-तत्र उनके सिद्धातो का अनुसरण नही हो पाया है। जब वे सिद्धात ओर रचना मे साम्य स्थापित करके चलते है तभी उनके विचारो मे परिपक्वता के दर्शन होते है। अपरिग्रह धर्म का अनिवार्य अग है । आदिकाल से ही ऋषि-मुनियो के जीवन और तत्कालीन साहित्य मे हमे अपरिग्रही प्रवृत्ति के दर्शन होते है, किन्तु समय के साथ उसके प्रयोग के ढग मे अन्तर आना स्वाभाविक था। राजा-महाराजाओ के युग मे समस्त सत्ता तथा अर्थ का केन्द्रीयकरण राजा के नियत्रण मे होता था, किन्तु प्रजातत्र मे सत्ता या धन व्यक्ति की केन्द्रित नही हो सकता। गाधी जी ने इसीलिए एक नवीन मार्ग का प्रतिपादन किया है । जैन तीर्थकर की कठोर अपरिग्रहिता से पृथक् गाधी जी की अपरिग्रही नीति ट्रस्टीशिप पर आधारित है । जैनेन्द्र के अनुसार इस नीति के पालन द्वारा अपरिग्रही का धर्म भी पूर्ण हो जाता है और सामाजिक आवश्यकताओ पर आघात नही पहुचता । उनके अनुसार जिस प्रकार मानव-शरीर की सार्थकता समष्टि की सेवा और कल्याण मे निहित होने मे है, उसी प्रकार व्यक्ति का धन समष्टि की आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन होना चाहिए । गाधी जी का जीवन अपरिग्रहिता का महान उदाहरण है, फिर भी उन्होने कभी मिलते हुए धन को अस्वीकार नही किया । जहा से भी धन मिला वे सचित करते रहे, उन्होने एकएक पैसे का हिसाब रखा । जैनेन्द्र के विचारो पर गाधी की ट्रस्टीशिप का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। 'अनन्तर' मे जैनेन्द्र की धार्मिक दृष्टि गाधीजी से पूर्णत प्रभावित प्रतीत होती है। उनके अनुसार धन का सग्रह पाप नही है, यदि व्यक्ति की उसके प्रति कोई वासना न हो । धन का सग्रह सार्वजनिक हित के लिए होना चाहिए । आजकल जिस प्रकार धार्मिक सम्प्रदाय प्रास्थाहीन हो गये है, उसी प्रकार बहुत से स्वार्थी व्यक्ति सार्वजनिक धन के स्वार्थ-साधन चाहते है। जैनेन्द्र ने सार्वजनिक राशि को व्यक्तिगत स्वार्थ से पृथक् रखने का १ 'गाधी जी ने सब राजाओ को समाप्त करना चाहा था । और वह चाहते वैसे आप ट्रस्टी बने ही है । भीतर से अनासक्त है, तो प्रजा की ओर से आपको मिला यह ट्रस्ट प्रजा का हित ही करेगा और आपकी आत्मा का भी अहित नही करेगा' --'अनन्तर', पृ० ११६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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