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________________ जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका आत्मनिष्ठा ही अधिक है जैनेन्द्र के उपन्यास प्रोर कहानियो मे आत्मनिष्ठा स्पष्टत दृष्टिगोचर होती है। उनके पात्र गपनी आत्मा मे ही सत्यान्वेषण का प्रयास करते है। पीडा ही वर रम है, जिसमे उन्हे अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है । जैनेन्द्र के उपन्यास गौर कहानियो मे बाह्य संघर्ष की अपेक्षा अन्तर्द्वन्द्व ही प्रधान है। 'मुखदा', 'कल्याणी', 'त्यागपत्र' के नारी पात्र आत्मव्यथा मे ही पीडित हे। जैनेन्द्र की कहानियो मे 'एकरात', 'गवार पानवाला', 'रुकिया बुढिया,' 'अधे का भेद,' 'दृष्टिदोष', 'जाह नवी', 'रानी महामाया' आदि अधिकाश कहानियो मे एक अन्तर्व्यथा विद्यमान है जो अपनी चरम सीमा मे शून्यवत् हो जाती है। उस अवस्था मे व्यक्ति को अपनी आत्मा के मर्मातिमर्म मे प्रवेश कर गतिन्द्रियता का बोध होता है । स्त्री-पुरुष के सम्मिलन मे भोग से योग की ओर गति होती है। योगावस्था मे द्वन्द्व और द्वैत से मुक्त होकर व्यक्ति एकाग्र हो उठता है । जैनेन्द्र की कहानियो मे अन्तरमन की रिवतता मे सदैव प्राप्ति की प्रबल आकाक्षा विद्यमान रहती है। 'एक-रात' मे सभोग की स्थिति में सी-पुरुष पात्र इतने तन्मय हो जाते है कि वासना का अश स्वय में निम ल्य सिद्ध हो जाता है। अतत उनकी योगावस्था उन्हे एक दूसरे गे दुर करके भी शान्त रखती है । जनेन्द्र की प्रात्मपरक नीति स्व-रति से भिन्न है। जैनेन्द्र के प्रालोवको ने उनकी यात्मनिष्ठा को आत्मयोग की सज्ञा दी है और उसे वासनामूलक तथा रीतिकालीन ऐहिकता से युक्त किया है। किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे सयोग स्वय मे अन्तिम स्थिति नही है। शरीर मे भटक जाना सत्य का निषेध करना है। वे इन्द्रिय सोपान द्वारा प्राप्त होने वाली आत्मोन्मुखता तथा परमतत्व की एकाग्रता को ही जीवन का प्रधान लक्ष्य मानते है । __ जैनेन्द्र का साहित्य युगविशेष से बधा हुआ नहीं है। बुद्धि व्यक्ति को काल और खण्ड की सीमा मे आबद्ध करके ही उसे व्यक्तित्व प्रदान करती है, किन्तु श्रद्धा खण्ड मे ही सीमित न रहकर अखण्डता की ओर उन्मुख होती है। काल की गति अनन्त तथा अपरिमेय है, वह अविभाज्य है। जैनेन्द्र के अनुसार हम अपनी सुविधा के लिए काल का विभाजन करते हे और उसे घटा, दिन और साल आदि में विभाजित कर देते है। किन्तु सत्य यह है कि काल की अनन्त धारा मे भूत, वर्तमान और भविष्य स्पष्ट ही समाहित हो जाते है । यदि भूत वर्तमान से पृथक् है तो इतिहास का स्वय मे कोई महत्व ही नहीं रह जाता। युग-युगान्तर से सग्रहीत मानव-अाधार विचार ही सस्कृति का रूप धारण कर लेते है ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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