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________________ जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बधी विचार समपित हो जाने की उत्कट लालसा दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र के पात्रो की अहशून्यता के मूल मे उनकी ईश्वरीय आस्था के ही दर्शन होते है। इसीलिए जैनेन्द्र ईश्वर के प्रेममय रूप को ही स्वीकार करते है। सत्य ही ईश्वर गावी के अनुसार 'सत्य ही ईश्वर है ।'' सत्य निर्वयक्तिक तथा निराकार है। वह हमारी भावना का विषय नही बन सकता । यद्यपि गाधी जी का यह विश्वास प्रदारश सत्य तथा उपयोगी है कि सत्य के ऐक्य मे साम्प्रदायिक विवाद की प्रथम रही है । क्योकि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी एक परम सत्य को स्वीकार करते है । परम आस्तिक ही नही नास्तिक भी सत्य के अस्तित्व को स्वीकार करते है । सत्य स्वय अकाट्य है । वस्तुत बिना किसी द्वन्द के समस्त मतवादो की धारा नदी के सदृश्य सत्य-सा सागर में समाहित हो जाती है। किन्तु 'ईश्वर' को सत्य कहने पर हिन्दू धर्म का ईश्वर ही सत्य सिद्ध हो पाता है पोर नास्तिक तथा प्रास्तिक गाड और खुदा आदि की सत्यता विवादास्पद हो जाती है। यही कारण है कि गाधी जी ने सत्य को ही ईश्वर माना । यद्यपि जैनेन् को यह गत्य स्वीकार है, किन्तु सत्य ही ईश्वर है, ऐसा मानकर वे श्विर को निर्वैयक्तिक नही रहने देना चाहते । ईश्वर मानव को अावश्यकताअो का पूरक है। उसे रूप देकर रूप मे प्रतिष्ठित करके हम उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर सकते हैं। समर्पण के अभाव मे ईश्वर की प्राप्ति असम्भव है। 'स्व' का विगलन ही ईश्वर प्राप्ति का वास्तविक मार्ग है। सत्य को ईश्वर मानने मे ग्रह का प्रश बना रहता है। राम का मूर्ति रूप प्रतिष्ठित स्वरूप हमे सहज ही गानन्दमय बना देता है । श्रीमद्भागवद् गीता का ब्रह्म भी ईश्वर रूप में इसी प्रकार परिगत हो गया है । जैनेन्द्र के द्वारा ब्रह्म को ईश्वर रूप मानने तथा उमे भक्ति प्रेम आदि का विषय स्वीकार करने मे श्रीमद्भागवद् गीता का प्रभाव स्पष्ट ही परितक्षित होता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे जैसे-जैसे उस मूर्त और सगुण मे एकात्मता पाने की चेष्टा होगी, वैसे ही वैसे व्यक्त अव्यक्त, मूर्त अमूर्त और सगुण निर्गुण बनता जायगा । माधना सावक को आकार का सहारा देकर निराकार मे उठती ही जायेगी।' जैनेन्द्र के अनुसार भक्त की भावना प्रियतम मे मूर्तित हो १. महात्मा गाधी 'दि वायस आफ टू थ', १९६८, अहमदाबाद-'ट्रथ इज गाँन नशिग इज नथिग एल्स' ... ६७ । २ महात्मा गाधी नही, पृ० ६६ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त'--(अप्रकाशित) ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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