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जैनेन्द्र पोर धम
आदेश उसे कर्तव्य बद्ध कर देता है। यह सत्य है कि पाचीन काल से ही स्व-धर्म पालन ही व्यक्ति का धर्म रहा है । गीता का गमरत ज्ञान अर्जन को स्वधर्मोन्मुख करने के लिए ही कृष्ण द्वारा प्रतिफलित हुगा । जैनेन्द्र की कहानियो ओर उपन्यासो में अन्यत्र भी इस कर्मनिष्ठा के दर्शन झाले है। उन्होने कर्मनिष्ठा में भी निष्काम भावना को प्रादुर्भूत करने का सपाग किगा है। निष्काम भाव से किया गया कार्य त्याग और परहित की भावना स मक्त होता है। कामनायुक्त कर्म में व्यक्ति स्वहित की अोर अधिक प्राकृष्ट होता है। इसलिए 'निर्मम' कहानी मे गुरु शिष्य को सन्मार्ग की प्रोग्रेरित करते हुए कहते हे.-"जाम्रो शिव का कर्म करो । शका न करो अाकाशा न करा।"
जैनेन्द्र के विचार --माधी और जैन दर्शन
जैन दर्शन का मुख्य सिद्धात 'स्याद्वाद' है । जैनेन्द्र के अनुसार 'स्याद्वाद' अहिसा का बौद्धिक प्ररूपण है। जो भी कथन अपने-माग । मापेक्ष्य हो वह निरपेक्ष भाव से पूर्ण नही हो सकता । इसलिए कथन के सामा प्रतिवाथन भी अनिवार्य है। यह भावना स्थात् की अपेक्षा रो प्रा । lr' के कारण अनेक वाद परस्पर प्रतिकूल न होकर अपनी प्रानी जगः ग ग हा गकते है। इसको अनेकात भी कहा गया है। स्याद्वाद में तनिक भि. पति प्रत्येक कथन स्वय अपने अस्ति अोर नास्ति दोनो मे वह परत ... गभिन्न है कि 'यह वस्तु नही है।'
स्याद्वाद अथवा अनेकात दोनो बौद्धिक क्षेत्र में अहिगा की पर्चा के केन्द्र के और यह अहिसा वही मूल तत्व स्व पर बोधक है । इमीनि पादाद पर टीका हो सकी है कि वह मन और प्राचार की शिथिलता का सूचक माना गया है। किन्तु जैनियो ने जितना स्याद्वाद पर बल दिया है उससे कम सम्यक दशन पर नही है । इसमे श्रद्धा की अविचलता का निदर्शन होता है । गम्यम् दर्शन प्राम, अप्त हे और हो सकता है । उसमे कही किसी समझौते की आवश्यता नही है।
१ 'जो चीज तुम्हे दु ख पहुचाती है, हिसा वही करने के लिए नग बान्य हो।
यश-प्रतिष्ठा जिससे तुम भागना चाहते हो वे ही तुम्हे चिनी ली है, किन्तु मै समझता हूं शिव का वह विराट उत्सर्ग का प्रबगर ।। तब जो तुम जैसे विरलो को मिलता है, तुम खोप्रोगे नही ।'
- जैनेन्द्र -- 'जैनेन्द्र की प्रतिनिधि कहानिया' (निर्मग), प० । २ गीता - २ अध्याय (श्लोक ११ मे पूरा अध्याय) ३ जैनेन्द्र की प्रतिनिधि कहानिया, पृ० ४६ ।