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जैनेन्द्र का जोवन-दशन
सत्य निर्वैयक्तिक होने के कारण ही सहज ही ग्राह्य नही हो सकता। 'प्रेम' वैयक्तिक तत्व है। 'मूर्ति' ईश्वर प्राप्ति के मार्ग का अवलम्ब है। जनेन्द को तो ईश्वर से भी अधिक प्रेम प्रिय है क्योकि ईश्वर की एकान्तिक धारणा होभी सकती है। उसके नीचे स्वार्थ का सेवन भी हो सकता है, किन्तु प्रेम मे मभव नही है ।' ईश्वर के नाम पर विभिन्न सम्प्रदायो में सदैव सघप हात हा देखा जाता है। किन्तु प्रेम ऊच-नीच, गरीब-अमीर, देश-विदेश पोर जातिवाद के भेद-भाव को पार करता हुआ अभेद की स्थिति पर ही आसीन होता है। जब कि सासारिक प्रेम किसी प्रकार की सीमा को स्वीकार नही करता ना ईश्वर प्रेम के लिए बन्धन की कल्पना ही निरर्थक है। प्रेम तो मुक्त है। वह सबको अपने मे समेट लेता है, बाध लेता है। किन्तु बाधकर भी वह मुक्त है। यद्यपि यह विरोधाभास सा प्रतीत होता है कि प्रेम बन्धन भी हे ओर मुक्ति भी, किन्तु सत्य इसी विरोध में समाहित है। दो बध कर ही एक हो पाते है । ऐक्य मे ही मुक्ति है । जैनेन्द्र प्रेम के सिवा कुछ भी मानने को तैयार नही है। प्रम का अनिवार्य अर्थ हे सम्बन्ध । वह बध जो सबगे युक्त होता है। प्रेम गीत भाव अह यूवत' नही हो पाता। उसमे समपण की भावना गगाहा होगी। जैनन्द्र का विश्वास है कि ईश्वर को प्रेम के रूप में लिया जा मो) Titअन्य था ईश्वर तक उनकी दृष्टि में सर्वथा और सहज ही अनावश्य हो जाता है।' प्रेम मे ही सच्ची शान्ति एव सुख की अनुभूति हो सकती है।
ईश्वर-प्रेम वियोग प्रधान
जैनेन्द्र प्रेम की सयोगात्मक स्थिति की अपेक्षा वियोगात्मक स्थिति को अधिक महत्वपूर्ण मानते है । वियोग मे प्रेम की तीव्रता कम नही होती, वरन्
और भी द्विगुणित हो उठती है। जब तक ईश्वर की प्राप्ति नही होती तब तक वियोग पक्ष ही प्रधान रहता है । विरह प्रेम में ही प्रेम पलता है । 'जयवधन' मे जैनेन्द्र जी ने उपासक की उपास्य से दूरी के कारण उत्पन्न त्याग की पराकाष्ठा की ओर इगित किया है। विरह मे • 'भक्त किस शक्ति मे हराते-हसते
१ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, १६६६, प्र० स०, पृ० २६३ । २ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, १९६६, प्र० स०, पृ० २६३ । ३ प्रेम में इतना नि शेष आत्मसमर्पण हो सकता है कि अनायारा ईश्वर भक्ति
का फल मिल जाय, बिना ईश्वर को जाने या उसका नाम लिए प्रेम की परिपूर्णता मे ताभ पा जाने के उदाहरण अनेकानेक मिल जायेग । जनेन्द्रकुगार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० ८७ ।