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________________ जैनेन्द्र और सत्य है। प्रेम की प्राप्ति के अभाव मे जितेन का व्यवहार इतना प्रतिबियात्मक हो जाता है कि वह अपनी प्रेमिका भुवनमोहिनी के वैवाहिक जीवन के सुख को देखकर व्यग्यात्मक बौछारे करने लगता है । इस प्रकार वह उसे चोट देकर अपने भीतर की ज्वाला को शान्त करता है । जितेन के द्वारा होने वाली समस्त विस्फोटक और भान्तिकारी प्रक्रिया एकमात्र प्रेम की अप्राप्ति का ही परिणाम है। उसके मूल मे अप्राप्ति जनित पीडा हे । पीडित व्यक्ति अपने प्रिय को ही प्रताडित कर गकता है, इसी मे उसे सतोष होता है । जितेन भूवनमोहिनी को जगल मे ले जाता है और निर्जन वन मे झोपडी मे डालकर उसके साथ बहुत ही बर्बरतापूर्ण, अमानवीय व्यवहार करता है । किन्तु, बदले मे भुवनमोहिनी उसके चरण छूने के लिए ही झुकती है। भूवनमोहिनी के प्रति जितेन के व्यवहार को देखकर यह कहा जाता है कि 'किसी स्त्री का इतना अपमान नही किया गया, जितना जैनेन्द्र ने किया है।' किन्तु जैनेन्द्र इसी सन्दर्भ मे अपने विचारो को स्पष्ट करते हुए कहते है-'कि स्त्री को मैने इतनी ऊचाई दी है कि जो उसे त्रास दे रहा है, उसके मूल को वह देखती है, और उसके प्रति उसमे अनुकम्पा का भाव है । अनुकम्पा के भाव से द्रवित है 'जो इतना गहरा त्रास पा रहा है, उगे पासपो से अपनाया जा सकता है।" परिणामस्वरूप भुवनमोहिनी जितेन द्वारा दी गई यातना को सहर्ष स्वीकार करती है और त्रास देने वाले की विवशता को जानकर उसका हृदय किसी भी प्रकार का प्रतिकार करने मे समर्थ नही हो पाता । मोहिनी जितेन को प्रेम और सहानुभूति देती है । किन्तु जो वह चाहता है, (भोग) उमे वह नही दे पाती । जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'प्रेम को वह (भुवनमोहनी) अस्वीकार नहीं करती, परन्तु दूसरी चीज (भोग) को अवकाण नही देती । उसका व्यवहार बडा धुधात्मक हो जाता है । रुग्ण को ममता देती है, परन्तु उद्धत को प्रोत्साहन नही देती । परिणामत अतृप्त का व्यवहार ध्वसात्मक दिनायी देता है, किन्तु मूल मे व्यथा है, अप्रेम नही । अन्तिम परिणति प्रेम और समर्पण मे ही होती है, जो कुछ होता है अज्ञात रूप से होता है, इसीलिए जितेन कहता है-''"जहर मुझमे था सब तो यही जानते थे कि वह आजादी का, क्रान्ति का, विश्व की शान्ति का काम कर रहे हैं। यह मैंने उन्हें बताया था लेकिन भीतर मैं ही यह खुद नही जानता था वे लोग यह जानते थे और मानते थे। मैं जानता भी नही था, मानता भी नही था । अपने शब्द से मैं अलग था।' स्पष्ट है कि जितेन मे जो कुछ दिखाई देता है वह १ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । २. साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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