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________________ जैनेन्द्र और व्यक्ति २११ है । जैनेन्द्र के पात्रो की अतिशय सहजता पाठक के भावो और विचारो के साथ साधारणीकरण करने में समर्थ होती है । प्रेमचन्द के पात्रो का जीवन प्रदर्श की सीमा मे आबद्ध है । उनके व्यक्ति पात्र निर्दिष्ट आदर्शो का ही अनुसरण करते है । जिस प्रकार 'रामचरितमानस' मे तुलसीदास कभी यह नही भूल पाते कि- राम भगवान है उसी प्रकार प्रेमचन्द के पात्र भी अपने आदर्शो की लक्ष्मण-रेखा पार करने का साहस नही करते, यदि उनसे कभी ऐसी त्रुटि 1 जाती है तो वे श्रात्महत्या करके अथवा शहीद होकर प्रायश्चित के लिए तत्पर रहते है । मानव जीवन निरे आदर्शों की निश्चेष्ट प्रतिमूर्ति नही है । यथार्थता हटकर बनने वाला प्रादर्श नितान्त अप्राकृतिक प्रतीत होता है। जैनेन्द्र आदर्श के लोभ मे व्यक्ति - जीवन की सम्भावनाओ का दमन नही करते और न ही पूर्व नियोजित प्रादर्शों की सीमा मे परिबद्ध होकर उनके व्यक्ति पात्र जीवन की सहजता और यथार्थता का निषेध ही करते है । प्रेमचन्द के पात्रो का आदर्श महत्वपूर्ण होता है । किन्तु उनकी महत्ता मानव जीवन के अन्त द्वन्द्व का समाधान नही प्रस्तुत करती । साहित्य का उदेश्य आदर्श की प्रतिष्ठा करना है, किन्तु आदर्श की प्राप्ति यथार्थ की भूमि पर ही सम्भव हो सकती है । प्रेमचन्द ने समाज की विभिन्न समस्याओ पर प्रकाश डाला है । उनका लक्ष्य व्यक्ति के बहिर्जगत को रूपायित करना है, जैनेन्द्र का आदर्श अन्त जगत से सम्बद्ध है। व्यक्तिवादी जैनेन्द्र व्यक्तिवादिता हठवाद अहित नही सहन कर (समर्पण) ही उनके जैनेन्द्र व्यक्तिवादी उपन्यासकार है, किन्तु उनकी को प्रश्रय नही देती । वे व्यक्ति के हितार्थ समाज का सकते । वृहद्तर स्वार्थ के हेतु लघुतर हित का त्याग साहित्य का परम आदर्श है । उनका व्यक्ति ग्रहनिष्ठ अथवा अहकारी नही है । उनके अन्तस् मे स्वत्व के समर्पण का भाव निहित है। वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यष्टि की स्वीकृति द्वारा समष्टि की उपेक्षा नही की गयी है, वरन् व्यष्टि द्वारा समष्टि की ओर उन्मुख होने की चेष्टा सतत् दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र की व्यक्तिवादी दृष्टि साहित्य मे प्रचलित पूजीवादी व्यक्तिवाद से नितान्त भिन्न है । सन् १८५० के बाद से हिन्दी मे एक महान् परिवर्तन होने लगा था । प्रथम महायुद्ध के बाद परिवर्तन का एक दौर पूरा हो गया । उस युग मे देश की आर्थिक परिस्थितियो के कारण जो विद्रोह उत्पन्न हुआ वह धर्म, दर्शन, समाज, नीति और राजनीति आदि द्वारा विभिन्न रूप धारण करके विरुद्ध उठते हुए व्यक्त हुआ । ' यह विद्रोह सामन्तवाद और साम्राज्यवाद
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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