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________________ २०४ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन उन्मूलन बहुत कठिन प्रतीत होता है । जैनेन्द्र के अनुसार--'वेश्या वह नही है जो अनेक को प्रेम करती है। वेश्या वह है, जो पैसे के एवज-मे अपने को देती है । इन शब्दो द्वारा जैनेन्द्र ने वेश्या सम्बन्धी गम्भीर सत्य की ओर इगित किया है। सामान्यत वेश्या को अनेक पुरुषो से सम्बन्ध स्थापित करने के कारण ही हेय माना जाता है। किन्तु वेश्यावृत्ति के मूल मे निहित नारी की विवशता की ओर हमारा ध्यान नही जाता । वह अर्थ के लिए अपने को देती है । वेश्यावृत्ति के सदर्भ मे चर्चा करते हुए ज्ञात होता है कि पुरुष की कामुकता ही नारी को विवश बनाती है । जैनेन्द्र वेश्या को किसी भी शर्त पर अमान्य नही मानते । उनकी दृष्टि मे यदि समाज वेश्या को हेय मानता है तो वैश्य क्यो सम्मानीय हो सकता है ? वैश्य की अर्थलोलुपता वेश्या से कही अधिक घातक है । क्योकि वेश्यावृत्ति का स्वरूप तो समाज मे प्रकट है, किन्तु वैश्य तो सामाजिक दृष्टि से सम्मानीय बनकर समाज के शरीर मे झूठ, चोरी और बेईमानी का घातक विष फैलाता है । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि में वेश्यावृत्ति की जड मे शुद्ध अर्थासक्ति विद्यमान रहती है । वेश्यावृत्ति पूजीवादी नीति का ही परिणाम है। भारत मे ही नही, ग्रीक, बेबीलोन तथा रोम मे यह वृत्ति प्राचीनकाल से चली आ रही है। श्री पार्नर के अनुसार वेश्यावृति का मुख्य कारण समाज में व्याप्त गरीबी है।" उनके अनुसार पति भी पत्नी को बहुकेन्द्रित होने के लिए विवश कर देते है। जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे वेश्यावृत्ति का जो स्वरूप दृष्टिगत होता है, उसके मूल मे गरीबी ही विद्यमान है । निर्धनता के कारण वेश्या बनी नारी समाज से तिरस्कृत होकर अपने पति की आर्थिक सहायता करती है। 'अधे का भेद' शीर्षक कहानी मे अधा भिखारी गली-गली गाकर भीख मागता है और उसकी पत्नी परिवार से दूर समाज के कीचड मे पडी गृहस्थी को चलाने १ 'लेकिन अर्थ-व्यापार के विचार से अलग वेश्या के प्रश्न का विचार पल्लवग्राही होगा, यथा मूलग्राही नही होगा, यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये ।' --जैनन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ३४७ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम,' पृ० स० ३५१ । ३ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचारो पर आधारित । ४ 'पावरटी इज वन आफ द मेन रीजन बाई सो मेनी गर्ल्स एण्ड वीमेन बीकेम प्रास्टीच्यट्' पार्नर ‘एलिमेण्ट्स आफ सोशलिज्म', न्यूयार्क ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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