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________________ ६० जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन जीवन को ही नष्ट होता हुआ देखते हे । वास्तविकता तो यह है कि जब से उन्होने साहित्य सृजन का मार्ग अपनाया तब से प्राद्यन्त वे ग्रपने साहित्य मे चरम ग्रास्तिक प्रोर ईश्वरवादी साहित्यकार और दार्शनिक के रूप मे ही होते हे । दार्शनिक हो अथवा साहित्यकार, प्रत्येक का अपना एक विचार पर होता हे जिस प्रोर वह सतत् गतिशील होता है । विचार व्यक्ति के सरकारी के ही परिणाम समझे जा सकते है । जैनेन्द्र यद्यपि जन्म से जैनी हे, तथापि भारतीय सस्कृति के विविध ग - उपागो से वे पूर्णत तटस्थ नही है । उनके विचारो पर वेदान्त, उपनिषद्, गीता आदि मे निहित ईश्वरीय आस्था की पूर्ण झलक स्पष्ट दृष्टिगत होती है । वैदिक काल मे एक परम सत्य की नाना देवी - देवता के रूप पूजा और प्रर्चना टिगत होती है । उपनिषदो मे भी ईश्वर की सर्वव्याप्ति पर प्रकाश डाला गया है । ईश्वर सर्वव्याप्त है, तथापि वह इतना सूक्ष्म हे कि इन्द्रियगम्य नही हो पाता है । ब्रह्म की सूक्ष्मता गोरगरता उसके प्रस्तित्व का निषेध नहीं कर सकती । जगत ब्रह्म की परित्यक्ति है । ब्रह्म के गुणो का अन्त नही हे नेति नेति इस प्रकार का विशेषण ब्रहा की अनन्तता को ही द्योतित करता है । जेन दर्शन जैन दार्शनिको की ईश्वर सम्बन्धी विचारधारा वेद र उपनिषदो से भिन्न है । जैन दर्शन प्रनीश्वरवादी है। तीर्याकर ही जैनियो के सर्वश है ।' तीर्थकर यह है, जिसने अपने समस्त पूर्व कर्मों को नष्ट करके सागारिक बन्धनो से मुक्ति प्राप्त कर ली है । वह आत्यात्मिक क्षेत्र में श्विरवादी विचारको मे ब्रह्म के सदृश्य स्थान प्राप्त करता है ।' तीर्थंकर प्रन्य लोगो के लिए प्रादर्श के पात्र होते है। जैनियो का तीर्थकर सिद्ध अथवा गर्हत उपनिपदीय ब्रह्म के ही समक्ष है । हा, जैनियो का ईश्वर सृष्टि का संचालक थवा विनाशक नही है । ' १ राहुल सांकृत्यायन 'दर्शन दिग्दर्शन', १९४७, इलाहाबाद, पृ०स०, ३८६, ४१० । २ एएन उपाध्याय 'दि जैन कनसेप्शन आफ डिवाईनिटी', १९६८ BETR A' GEZUR GESTE SGCHIGHL INDIANSHESTCH RIET FUR ERICH FRAUW ALLNIR Pg 390 ३ वही, पृ० ३६०-३६२ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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