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हुई। उनसे मिलने के पूर्व मन एक अज्ञात भय से ग्रस्त था। उनकी वरिष्ठता तथा वयोवृद्धता के कारण ऐसा प्रतीत होता था कि सर भवत वे मेरी प्रत्पबुद्धि का आभास पाकर मुझे अपनी समस्यानो का समाधान प्राप्त करने की छूट न दे ? किन्तु उनके व्यक्तित्व के प्रभाव ने मेरे भयर पी कोहरे को क्षण भर मे ही विलीन कर दिया । मे उनके समक्ष रतनी प्रात्गीय हो गई कि जिसकी कि मै कभी कल्पना भी नही कर सकती थी। पान दिन तक लगातार मै पाच-छ घण्टो तक प्रतिदिन प्रश्न करती और वेब स्नेह के साथ मेरे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देते । उनके सम्बन्ध में मेरे मन में एक यह भी भय था कि कही उन्होने मेरे प्रश्नो के उत्तर अपनी प्रकृति के अनुकूल केवल 'हा' मे ही दिए तो कैसे बात स्पष्ट होगी ? परन्तु प्राशा के विपरीत उन्होने हर समस्या को भली प्रकार सुलझाने मे सहयोग दिया। कई बार मेरे सन्तुष्ट न होने पर वे तनिक भी रुष्ट न होते थे और अपनी बात को बडे ही महज ढग गे म्पाट करने का प्रयास करते थे।
जैनेन्द्र से मिलने पर उनके साहित्य की कुछ बहुचलित iit प्रार उपन्गासो मे जो विवाद प्रचलित है, उन पर भी चर्चा हई और हान उनका सन्तोषजनक समाधान किया। इसी अवसर पर मन उनको राम । र ज्ञासा व्यक्त की कि क्या वे निकट भविष्य मे कोई उपन्यास निलंग । सम्बन्ध में उन्होने यही विचार व्यक्त किया कि वे स्वेच्छा म तो कभी लिखते नही है, जब कही से जोर पडता है, तभी उनके भीतर व्याप्त द्वन्द्व रचना का सप धारण कर लेता है, तथापि उन्होने यह अवश्य बताया कि 'अन्तत्ति को लेकर उपन्यास लिखने की बात मन में उठी थी जो मन से सवथा दूर रहो । इच्छा मन में ही रह गई, बाहर उद्भासित न हो सकी।' उन्होने एक बहु काल से इच्छित विषय पर उपन्यास रचना की अपनी इच्छा प्रकट की थी । विपय का सार है कि-'अर्थ विनिमय ही यदि धनार्जन का माध्यम हो तो अन्तत वेश्या का स्थान वैश्य से ऊचा होना चाहिए ।' उपरोक्त विषय को लेकर ये वैश्यो के प्रति अपने प्राकोश तथा वेश्या बनी विवश नारी के पति अपनी सवेदना को ही व्यक्त करना चाहते है।
श्रद्वेय जैनेन्द्र जी से विदा का वह क्षण तो मेरे मन की पीठिका पर वह अमिट छाप छोड गया है जो अविस्मरणीय है । अस्वस्थ होने के अनन्तर भी वे द्वार तक मुझे पहुचाने आए और बड़े प्यार से बेटी के सदृश विदा किया। म उनके प्रति अपनी श्रद्धा और आभार को शब्दो द्वारा व्यक्त कर सन्तुष्टि नही पा रही हूँ। मै विनत भाव से उनके प्रति आभारी हूँ।
सर्वप्रथम मै उस परम पिता के प्रति नतमस्तक है, जिसकी अनुकम्पा में पग