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जानन्द्र के जीवन दर्शन की भूमिका जो कुछ भी दिखता है वही नही है, वरन् उसके पीछे उसका एक इतिहास है, जो उसके व्यक्तित्व पोर आचरण का आधार है। जैनेन्द्र ने अपनी मनोवैज्ञानिक सुभा-बूझ द्वारा अखण्ट जीवन का अवलोकन किया है। 'फकिया बुढिया' व 'गवार' मे उनके इन्ही विचारो की झलक दृष्टिगत होती है ।
किया बुढिया' आजीवन बुढिया और रुकिया ही नही थी। वह भी कभी युवती थी। रनिया ही नही रुक्मणि थी। किन्तु बुढापे मे उसकी अति विनम्रता, गहनशी ता और त्यागमयी प्रवृत्ति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि अवश्य ही वह ही मे टूटी हुई है। उसके भावात्मका जीवन को कही कोई ठेस लगी है, जिसके कारण वह इतनी अधिक विनत रहती है। ऐसी स्थिति मे लेखक ने बड़ी सूझ-बुझ के द्वारा रुकिया के बीते दिन की पर्त पर पर्त खोली है । लेखक की महत्ता बीते दिनो की घटना के वर्णन मे नही है, वरन् उसे किया बुढिया के यौवन को उभार कर अत्यधिक सवेदनात्मक रूप मे प्रस्तुत करने में है । 'गवार' मे भी गवार व्यक्ति की अतिशय भक्ति भावना के मूल में उसके मन की कठा ही वह प्रेरक तत्व है जो समस्त विचार और फर्म को प्रभावित रहती है। उसकी बातो मे ऐसा प्राभाग होता है कि वह अन्त माधु पनि का भक्त पुरुप है, किन्तु जैनेन्द्र ने उसके आचरण को कार्य र गा की असा मे रखकर समझने और मूल मे अविस्थत मत्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। वस्तुत लेखक का उद्देश्य व्यक्ति के छन्न को काटकर गाय का उद्घाटन करना है । 'सुखदा', 'विवर्त', 'अनन्तर' आदि मे जैनेन्द्र के पमुख पायो का आचरण वहुत ही असहज रूप से अभिव्यक्त होता है। उपन्यासो मे जैनेन्द्र ने कर्म के कारणो की स्पष्ट विवेचना नही की है, किन्तु यह गत्य है कि उनके पुरुष पात्र यथा जितने, हरिप्रसन्न मनोग्रन्थि से पीलित और इसीलिए वे क्रान्तिकारी का रूप धारण करते है । ___ जैनेन्द्र ने सत्य के उद्घाटन के लिए मनोविश्लेषण की शास्त्रीय पद्धति का महारा नही लिया है, वरन् अपने व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर पात्रो के जीवन की असहजता तथा उनके अप्राकृतिक प्राचरण के मूल उत्स को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होने स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक सम्बन्धो को मनोवैज्ञानिक धरातल पर प्रस्तुत किया है। फ्रायड के अनुसार 'काम' शारीरिक भुल है जो सदैव तृप्त होने के लिए सचेण्ट रहती है। जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष के मम्मिलन में काम-तृप्ति की आकाक्षा को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है । काम की क्षधा को उन्होने आध्यात्मिकता का पुट देकर
१ फाय', 'मनोविश्लेषण' (१५-७-१९६०), द्वि० स०, दित्ली, पृ० २७७ ।