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________________ जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु से प्राप्त होता है । उपरोक्त विचारो के सन्दर्भ मे जैनेन्द्र के विचार पूर्णत असम्बद्ध प्रतीत होते है । उपरोक्त विवेचन के अनन्तर हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि पुनर्जन्म सम्बन्धी जैनेन्द्र के विचार सर्वथा मौलिक है । 'अतृप्तवासना' और अभीप्सायो की समस्या का समाधान करते हुए वे कहते है कि अतृप्तिया पूर्णता के लिए प्रयत्नशील न होकर साहित्य, कला आदि के रूप मे अमर हो जाती है । इस प्रकार जो मरता है वही मरता है, उसके द्वारा जो चरितार्थ हुआ रहता है, वह नही मरता, वह अमर बना रहता है। जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति को पूर्वजन्म की स्मृति नही रहती, (यद्यपि उनके विचारो के अनुसार पूर्वजन्म की स्मृति के लिए कुछ भी शेष नही रहता) किन्तु वे यह अवश्य स्वीकार करते है कि पूर्वजन्म की स्मृति सम्भव होने पर व्यक्ति का वर्तमान जीवन और भी कष्टमय हो जायगा । 'रुकिया बुढिया' शीर्षक कहानी मे उन्होने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है। जैनेन्द्र के अनुसार पुनर्जन्म सत्य है किन्तु उस सब घटित अतीत से अपने को सर्वथा तोडकर नए जन्म मे हम जीते है नही तो अपने अनन्त इतिहास का बोझ अपने माथे पर लेकर हम जी सकते है ? हमारा ज्ञान सकुचित है, यही हमारा वरदान है। हम परिमित है, यही हमारा धन्य भाग्य है । जैनेन्द्र के पुनर्जन्म सम्बन्धी विचारो को अशत विकासवादी विचारो के सन्दर्भ मे स्वीकृत किया जा सकता है । स्वामी विवेकानन्द के अनुसार पुनर्जन्मवादी यह मानते है कि 'सभी अनुभव प्रवृत्तियो के रूप में अनुभव करने वाले जीवात्मा मे सग्रहीत रहते है और उस अविनाशी जीवात्मा के पुनर्जन्म द्वारा किए जाते है और भौतिकवादी मस्तिष्क को सभी कर्मों के आधार होने के और बीजाणुओ 'सेल्स' के द्वारा उनके सक्रमण का सिद्धात मानते है । "उसे (प्रवृत्तियो को) माता-पिता से पुत्र मे आने वाली आनुव शिक सक्रमण द्वारा समझते है। इस दृष्टिकोण से जैनेन्द्र के प्रेरक गुणो के सक्रमण का विचार विकासवादी ही प्रतीत होता है । जैनेन्द्र अपने विचारो की पुष्टि करते हुए १ 'मरने के पहले जो होता है उसे जीना कहते है । "हम तुम नही जीते, जीता खुद जीवन है, वह इतिहास मे जीता है, विकास मे जीता है । वह मेरा तुम्हारा नहीं है, मुझसे तुमसे नहीं है, बल्कि हम उसमे है। वह है, हम नही है।' -जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा' पृ० १७१ । २ जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ७, ४० स०, दिल्ली, १९६३, पृ० १०३ । ३ विवेकानन्द --'मरणोपरान्त', पृ० ३२ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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