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________________ जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका २६ गलीत जिनान के बहुत ही निकट प्रतीत होती है । जैनेन्ट का सम्प्रति साहित्य प्रेम की व्यथा से ही इतना हृदयग्राही बन सका है। उन्होने मानव जीवन ही नही पशु पक्षी तथा जड प्रकृति के क्रिया-क्लापो मे भी अन्तनिहित उनके प्रेम ही गभिव्यक्ति की है। पशु-पक्षी मे उन्होने मानवीय मवेदना को प्रतिष्ठित करके प्रेम का उच्चादर्श व्यक्त किया है। 'एक गौ' तथा 'दो निडिया' कहानिगो मे गात्विक तथा रोमान्टिक प्रेम की अत्यधिक मामिक गभिव्यक्ति है । ____ोनेन्द्र की प्रास्तिकता प्रेम अथवा श्रद्धा का ही पर्याय है। पद्धा ही उनके विचारो के मूल मे अवस्थित वह स्रोत है, जो उन्हे जीवन-यात्रा के अनन्त कष्टो तथा निराशा के मध्य आशा और विश्वास पी एक दिव्या दृष्टि प्रान करती है। विज्ञान के इस युग मे मानव नितान्त श्रद्धाहीन हो गया है। उकी प्रात्म-शक्ति समाप्त प्राय हो गई है। किकर्तव्यविमूढ हुमा-सा परग मत्य को जानने की चेप्टा न करके निरर्थक कार्यो मे अपनी उर्जा नष्ट करता है। मनेन्द्र के अनुसार विज्ञान समय की आवश्यकता है, किन्तु प्रारथा जीवन का पार है। ईश्वर की परम सत्ता में विश्वास करता हुमा व्यक्ति नाजीवन कष्ट गोगा भी निराश नहीं होता । पीडा मे भी उमे ईश्वरीय बरदान की गनुभूति होती है। ___ो के अनुसार जीवन-सघर्ष है । ससार युद्ध-स्थल है । मनुष्य प्रतिवाण सो गाय पोर परिस्थिति के थपेडो को झेलता हुना भी अपनी जीवन-या को पूर्ण करने का प्रयास करता है । उनकी अधिकाश कहानियो भार उपन्यागो मे जीवन को शहादत प्रोर यज्ञ के रूप मे स्वीकार किया गया है । 'कल्याणी', 'जय गंग' आदि उपन्यासो मे जीवन के यज्ञ मे स्वय को हुताशन वना देना ही उना लक्ष्य है। जैनेन्द्र के समक्ष गाधी ओर ईसा की कुर्बानी ही वह प्रादर्ग रही , जिसके कारण उनके पात्र सदैव अपने जीवन का उत्सग करने को तत्पर रहते है। जैनेन्द्र के साहित्य मे ईसा के जीवन की पीडा को मानव जीवन के महानतम आदश के रूप मे अभिव्यक्त किया गया है । पीडा ही व्यक्ति की पू जी है, जिसे अपने अन्तस् मे सजोए हुए वह जीवन-शक्ति का १ 'प्रेम न किसी पर अधिकार जमाता है और न स्वय ही किसी से अधि वृत है। २ जीवन एक शहादत है। शास्त्र कहते है यज्ञ है।' -जैनेन्द्र कुमार 'कल्याणी', दिल्ली, १६५६, पृ० ११० । ३ 'जीवन ही जलना है।' वह है, यज्ञ मे उससे बचना क्यो चाहे । --जैनेन्द्र कुमार
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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