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________________ जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण ३०५ विश्लेषक प्रक्रिया द्वारा वे खण्डित करने के पक्ष मे नही है । प्रखण्ड सत्य को वे ज्ञान का विषय न मानकर सम्बुद्धि का विषय मानते है । सम्बुद्धि मे प्रदृष्टि की प्रधानता होती है । अर्न्तदृष्टि द्वारा सत्य को समग्र रूप में देखने की चेष्टा की जाती है । जैनेन्द्र के अनुसार उपदेश मूलक, आलोचनात्मक दृष्टि से सृजनात्मक साहित्य मे अभिव्यक्त जीवन की सहजता और सजीवता का दिग्दर्शन सम्भव नही हो सकता है । आलोचनात्मक प्रक्रिया द्वारा वस्तु को अखण्ड रूप मे न देखकर उसे भिन्न-भिन्न करके देखा जाता है । यथार्थ की अभिव्यक्ति के लोभ मे व्यक्ति को पूर्णतया विश्लिष्ट करके देखने से सत्य की अनुभूति नही हो सकती । विश्लेषण के द्वारा अनेकता और विच्छिन्नता ही यथार्थ बन जाती है और यथार्थ के मूल मे अन्तर्भूत सत्य अदृश्य हो जाता है । जैनेन्द्र के अनुसार यथार्थ के आग्रह मे सौदर्य छिन्न-भिन्न हो जाता है । वस्तु की अनेकता बेहद उभर पडती है । जैसे सब कुछ परस्पर को व्यक्त करता हुआ सिर्फ कटा-फटा है । साहित्य-वस्तु की अनेकता मे से अपेक्षाकृत दृश्य एव दर्शन की एकता की सृष्टि करता ।" जैनेन्द्र की दृष्टि मे साहित्य का उद्देश्य जीवन की विविधता मे एक अमोध और प्रश्य सूक्ष्म सत्य की प्रतिष्ठा करना है । 1 जीवन के साथ ही साहित्य - प्रक्रिया भी वैज्ञानिक पद्धति से अनुप्राणित है । वैज्ञानिक बुद्धि प्रन्वयपरक अधिक होती है, किन्तु साहित्य अन्य और विश्लेषण के आधार पर रसानुभूति और प्रभावगत अन्विति से शून्य हो जाता है । जैनेन्द्र की ढष्टि में सत्य शिव सुन्दरम् की पूर्णता साहित्य मे रसानुभूति और स्थायित्व उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है । यथार्थ की प्राप्ति के लोभ में वस्तुगत समग्रता विनष्ट हो जाती है, क्यो कि सत्य शिव सुन्दरम इन तीनो मे से किसी एक के भी प्रभाव अथवा अन्य के वर्णन की प्रतिशयता से साहित्य का स्वरूप पूर्ण नही हो सकता । जैनेन्द्र के अनुसार वैज्ञानिक पद्धति से सत्य के अनुसधान में हम कितने भी दूर जा सके, चित्त सत्य तक नही पहुच सकते है । नही पहुच सकते है, इसलिए है कि वहां पहुचने वाला व्यक्ति और पहुचने की मंजिल जो बने रहते हे | जैनेन्द्र जीवन और साहित्य के लिए श्रद्धापरक ज्ञान को ही स्वीकार करते है । उनकी दृष्टि मे प्रास्थायुक्त बुद्धि दूसरे को खण्डित करके चलने के भ्रम में नही पडती । श्रद्धा और विश्वास के द्वारा आग्रह का भाव प्रखर नही होता । इसमे समर्पण और स्वीकारता की भावना ही विशेषरूप से जाग्रत होती है, तो उसमे शब्द और रूपाकार गौरण हो जाते है, भाव-गरिमा ही शब्दों द्वारा ध्वनित होती है । जैनेन्द्र के साहित्य में प्राप्त होने वाले दार्शनिक-बोध के १. जैनेद्रकुमार 'कहानी अनुभव और शिल्प', पृ० १३१ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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