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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
नही रहता। जिस प्रकार विभिन्न नदिया विभिन्न मार्गों से प्रवाहित होते हुए भी सागर में ही समाहित होती है। उसी प्रकार विभिन्न मतवाद मात्र 'ईश्वरप्राप्तक मार्ग ही है । लक्ष्य की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए । यदि हम मार्ग मे ही उलझे रह गये तो सत्य की प्राप्ति नही कर सकते । सत्य तो सर्वत्र एक है, चाहे वह भारत मे हो या विश्व के किसी भी कोने में हो। जैनेन्द्र ने धर्म को व्यक्ति के आचरण तक सीमित करके उसे सामाजिक और विश्वव्यापी बनाने का प्रयास किया है। 'अनन्तर' मे वनानि द्वारा जिस शान्तिधाम की स्थापना की योजना बनाई गई है, वह धर्म की सकीर्ण मनोवृत्ति की परिचायक न होकर विश्वव्यापी मानव-धर्म की स्थापना का प्रयत्न प्रतीत होती है। सस्था और सम्प्रदाय मे रहकर ही धर्म-भावना प्रगतिशील हो सकती है। 'अनन्तर' मे शान्ति-धाम किसी खास धर्म या मत का प्रवर्तक न होकर मानवमात्र की परस्परता को बढाने का एक महत्वपूर्ण साधन है । वस्तुत जैनेन्द्र की धार्मिक दृष्टि अत्यन्त उदार है । उनके साहित्य मे जहा कही भी उनकी धार्मिकता के दर्शन होते है, वे उनके विचारो की उच्चता और व्यापकता के ही दर्शन कराते है। उनका साहित्य उनके पात्मज्ञान (धर्म) का ही अभित्यक्त रूप है । आज मनुष्य की स्वार्थमयी दृष्टि ने सम्प्रदायो को पित और कलकित कर दिया है । 'सम्प्रदाय' शब्द से ही स्वार्थ की गन्ध आती है। एक राम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय के समर्थको पर नाना आरोप करते है । इरा दुराग्रह में धर्म की मूल सवेदना सम्प्रदाय से छूट जाती है और वे कलह और सघर्ष के केन्द्र बन जाते है। जैनेन्द्र के अनुसार विभेद की विद्रोहात्मक स्थिति अधर्म की सूचक है। पर के लिए स्व का त्याग ही जैन धर्म का मूलाधार है । जैनेन्द्र के अनुसार यद्यपि परम धर्म मानव धर्म अथवा अहिसा धर्म है, किन्तु सामान्य रूप से किसी को किसी विशिष्ट मार्ग पर चलने के लिए विवश नही किया जा सकता। 'अनन्तर' मे जनेन्द्र ने अपनी इसी सदृदयता का परिचय दिया है। उनके अनुसार मत
१ 'वनानि एक सस्था स्थापित करना चाहती है, 'शान्ति धाम' । देश-विदेश
का प्रश्न उसमे न होगा, न किसी खास धर्म या मन्तव्य । उनका विचार है कि अपनी-अपनी सस्कृतियो ने भी मनुष्य की परस्परता मे बाधा डाली
है।' --जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर' दिल्ली, १६६८, पृ० ६७ । २ 'हम अपने मन से सबको नापते है। शायद हम विवश है। इसलिए हममे
से हर एक को नही चाहिए कि स्वय को लेकर जो भी चाहे हो, दूसरे को उस जैसा रहने दे।' -जैनेन्द्र 'अनन्तर', पृ० ६७ ।