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________________ २२० जैनेन्द्र का जोवन-दशन पुरुष स्वय मे अपूर्ण है। पूर्णता अर्थात् स्त्री-पुरुष के परस्पर सयोग द्वारा ही जीवन का लक्ष्य पूर्ण हो सकता है । जैनेन्द्र यथार्थता को पाप अथवा अनं तिक नही समझते । सत्यता पर आवरण डालकर सत्य का निषेध नही किया जा सकता । जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति का आदर्श कृत्य मे न होकर कृत् की भावना मे सन्निहित होता है । उनकी दृष्टि मे नैतिकता का मूल भानदण्ड मानव, मानव की परस्परता है । पारस्परिक स्नेह और सहानुभूति मे मर्यादा की सीमा उपस्थित करना नैतिकता नही है । मानव जीवन का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति हे, किन्तु मन की व्याकुल, अपूरण तथा अतृप्त अवस्था में मादक्ष की प्राप्ति सम्भव नही हो सकती । मोक्ष की प्राप्ति के हेतु मन की विवान्ति अनिवार्य है। जैनेन्द्र के अनुसार--'प्रादमी मे जो है उस सब को स्वीकार नही करेंगे तो उसे ह्रस्व ही करेगे, महान न बनाएगे । आदमी मे से कुछ अलग काटकर उसको पूरा नही किया जा सकता। जैनेन्द्र की दृष्टि मे पाप-पुण्य का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है, वह स्त्री-पुरुष के सम्बन्धो तक ही परिमित नही है । स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तो स्वाभाविक और सहज है। जिस प्रकार व्यक्ति गुणो के सम्बन्ध मे अपूर्ण है, उसी प्रकार जैविक दृष्टि से स्त्री-पुरुष के रूप मे अपूर्ण है अतण्व दोनो का मिलन सामाजिक दृष्टि से अपरिहार्य नही है। साभान्यत जिन सामाजिक मर्यादापो के पालन मे व्यक्ति गर्वानुभूत होता है, उसे जनेन्द्र मिथ्या ढोग और अभिमान का सूचक मानते है । उनके अनुसार 'नर-पुगव और नर केसरी ऊपरी शोभा के लिए हो सकते है, जाति की स्वास्थ्य शक्ति और सौष्ठव उनसे नहीं है। क्योकि समाज में कुछ ऐसे व्यक्ति होते है जो बाह्य रूप मे आदर्श के प्रतीक होते है, किन्तु भीतर-ही-भीतर अपनी दुश्चरित्रता का विष फैलाये रहते है। वे छद्मरूप मे अपनी वासना को शान्त करते है, किन्तु समाज के समक्ष अपनी महानता का ढोग रचते है। ऐसे पुरुष समाज सुधारक होकर भी समाज और जाति के स्वास्थ्य को नष्ट करने के भागी होते है । व्यक्ति देवता नही जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति का देवता बनने का प्रयास कोरा दम्भ है। उत्तरोत्तर देवत्व अर्थात् सद्गुणो की प्राप्ति मनुष्य का आदर्श है, किन्तु देवता १ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ५५७ । २ जैनेन्द्र कुमार 'सुखदा', पृ० स० १६१ । ३ जैनेन्द्र कुमार 'सुखदा', पृ० स० १०१ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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