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________________ जैनेन्द्र और व्यक्ति २१६ उज्जवल पक्ष की अभिव्यक्ति करना है। इस प्रकार उनके साहित्य मे व्यक्ति की हीनता अवदमित रह जाती है । जैनेन्द्र के साहित्य मे महानता का कल्पित आदर्श नही प्रस्तुत किया गया है, वरन् व्यक्ति चरित्र के प्रक्षिप्त अशो को उभारने का प्रयास किया गया है । जैनेन्द्र ने आदर्श की निश्चितता से अधिक उसकी सम्भावना पर बल दिया है । आदर्शवादी दृष्टि 'क्या है' से अधिक 'क्या होना चाहिए' पर आधारित है। आदर्शवादी लेखको ने मानव जीवन की कुरूपताओ के बीच मानव जीवन और चरित्र के उज्जवल पक्ष को उद्घाटित करने की चेष्टा की है । डा० सर्वजीतराय के अनुसार--'अभाव के कारण ही व्यक्ति दुखी होता है। आदिकाल से ही मानव जाति उर्ध्ववेत्ता बनने की ओर प्रयत्नशील रही है, क्योकि अादर्श की सीमा मे आबद्ध व्यक्ति पूर्ण होते हुए भी अधिक सवेदनीय नही हो पाता । जैनेन्द्र के अनुसार यथार्थ (सत्य) की अभिव्यक्ति अश्लीलता की परिचायक न होकर व्यक्तित्व की पूर्णता की सूचक है । गुण यदि व्यक्ति के आदर्श स्वरूप का द्योतक है तो दोष भी उसके जीवन का यथार्थ सत्य है । जैनेन्द्र के अनुसार दुर्बलता तथा क्षुद्रता व्यक्ति की प्रकृति है । प्रकृति का निषेध करके महान बनने का दम्भ मिथ्या है । ऐसी महानता के यदा-कदा टूटने का भी भय रहता है, क्योकि उसके अन्तस् मे अतृप्ति बनी रहती है। मानव-प्रकृति का निषेध करके प्राप्त होने वाली महानता बाह्य रूप मे आदर्श और मर्यादित प्रतीत होती है, किन्तु भीतर-ही-भीतर मन का छल व्यक्ति को कुरेदता रहता है और वह अन्तर और बाह्य के द्वन्द्व मे शान्ति नही प्राप्त कर पाता । छल और कपट के भाव व्यक्ति को कर्म मे आत्मसात् होने से वचित रखते है। 'दिन, रात और सवेरा' में मान और प्रतिष्ठा के मध्य रहने वाली कवियत्री अपनी अन्तस् की यथार्थता को अभिव्यक्त नही कर पाती। समाज की मर्यादानो से बाहर वह स्वय मे होती है, जहा उसे सारी मान-प्रतिष्ठा मिथ्या प्रतीत होती है, क्योकि वह अपनी अहता को बाह्यरूप मे विसर्जित करने में असमर्थ रहती है। 'टकराहट', 'विचारशक्ति', 'ग्रामोफोन का रिकार्ड', 'रत्नप्रभा' व, 'गवार', 'अकेला' आदि कहानियो मे व्यक्ति के अन्तस् के यथार्थ रूप का उद्घाटन किया है। स्त्री और १ 'सभी धर्मों मे मानव जीवन और स्वभाव पर अकुश लगाने की चेष्टा की की गई है । ताकि उसके भीतर का छिपा हुआ पशुत्व मुह न उठा सके ।' --डा० सर्वजीतराय 'हिन्दी उपन्यास साहित्य मे आदर्शवाद', प्र० स०, १६६६, इलाहाबाद, पृ० स० १२ । २. जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, प्र० स०, १९६४, दिल्ली, पृ० स० १७२-१८१।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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