________________
जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
समिधा की भाति यज्ञ के हुताशन मे भस्म होकर भी मै तुझमे ही पहुंचना चाहता हू। सत खलील जिब्रान के अनुसार भी प्रार्थना का अर्थ ही अपनी आत्मा को विश्वात्मा के संघर्ष मे लाना है।
वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे प्रार्थना का महत्व विशेषरूप से दृष्टिगत होता है। उसमे लेखक की आस्तिकता साकार रूप धारण करके फूटी पडती है । जिस प्रकार सूर, तुलसी आदि कवियो की रचनायो मे अतिशय भावुकता के स्थल मे कवि का व्यक्तित्व कवित्व की मर्यादा को भूल जाता है । उसी प्रकार 'साधु की हठ' मे लेखक की भक्ति-भावना का पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाता है। जीवन का सारा ज्ञान, मारी साधना, प्रार्थना की तन्मय अवस्था मे विलुप्त हो जाती है, इसीलिए साधु के माध्यम से उनकी प्रार्थना के प्रति आस्था प्रकट होती है। उनकी दृष्टि मे प्रार्थना ही सब कुछ है। यही प्रेम है, यही श्रेय है, यही ज्ञान है। यही मेरी साधना है, यही मेरी साधना का साध्य है। 'टकराहट' मे लेखक ने भारतीय आस्तिकता और पाश्चात्य जीवन के सत्य से उत्पन्न द्वन्द्व की ओर इगित किया है। जैनेन्द्र ने कैलाश के द्वारा प्राश्रम में होने वाली प्रार्थना के महत्व पर प्रकाश डालते हए बताया है कि प्रार्थना में व्यक्ति के मन का द्वन्द्व शान्त हो जाता है और वह ईश्वर की शरण में जाकर परमशान्ति का अनुभव करता है। उसकी दृष्टि मे जीवन की मर्यादानो को सहज भाव से स्वीकृत करने मे ही प्रात्मशाति की प्राप्ति हो सकती है।'
जैनेन्द्र की प्रास्थामुलक भावनात्मक तथा प्राध्यात्मिकता उनके साहित्य की रूढता ओर शुष्कता को दूर कर उसे सरस और ग्राह्य बना देती है, जिसके कारण वे लेखक होने के साथ ही दार्शनिक की आस्था को भी अपने में समा लेते है। जैनेन्द्र के अनुसार ईश्वर की भक्ति में जो नशा है, वह लौकिक नशो (शराब) मे सभव नही हो सकता । उन्हे तो प्रकृति की विराटता के मध्य एकमात्र उसी ब्रह्म की छाया ही दृष्टिगत होती है । लौकिक नशा पल भर के बाद समाप्त हो जाता है किन्तु ईश्वर की भक्ति जिसके हृदय में समाहित हो जाती है, वह आजन्म उसी मे डूबा रहता
१ जैनेन्द्रकुमार 'साधु की हठ' (जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ६.) पृ० ११ । २ प्रार्थना में हम अपने को अलग मानते है, इसी कारण प्रार्थना मे बल
मिलता है। ---जैनेन्द्रकुमार 'टकराहट' (जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ७), दिल्ली, १६६३, ४० स०, पृ० ६ ।