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________________ उपसंहार ३१३ उसके साथ नही जाते वरन् यही कालाकाश मे व्याप्त हो जाते हे तथा साहित्य और इतिहास के रूप में स्थायी रहते है। जैनेन्द्र के अनुसार मृत्यु मे जीवन का अन्त नही है । मृत्यु जीवन का द्वार है । मृत्यु की चेतना से व्यक्ति सतत् कर्मशील रहता है किन्तु मत्यु का भय अपेक्षित नही है । जैनेन्द्र ने मानव जीवन का सश्लेषणात्मक स्वरूप व्यक्त किया है। उन्होने मानव जीवन को खण्ड रूप मे न देखकर पूर्ण इकाई के रूप मे विवेचित किया है। इसीलिए वे व्यक्तित्व मे होने वाली काट-छाट को उचित नही समझते । उन्होने जीवन की समग्र अभिव्यक्ति की है। उनके सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को गेस्टाल्टवाद के समकक्ष मे विवेचित किया जा सकता है, तथापि उनमे कुछ मूलभूत अन्तर दृष्टिगत होता है, जिसके कारण वे गेस्टाल्ट के विचारो से तटस्थ प्रतीत होते है। जैनेन्द्र-साहित्य का अध्ययन करने के अनन्तर हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि उनके विचारो पर भारतीय तथा पाश्चात्य विचारको की छाप तत्कालीन परिस्थितियों के कारण यत्र-तत्र दृष्टिगत होती है । तथापि जैनेन्द्र को किमी वाद विशेष का प्रचारक अथवा अनुगामी नही माना जा सकता। क्योकि वे परिस्थिति की सापेक्षता में भी अपनी अनुभूति की सत्यता से वचित नही रहे है। जैनेन्द्र के सम-सामयिक फ्रायड, मार्क्स आदि विचारको मे भौतिकता की ओर अधिक उन्मुखता है । फ्रायड ने मनोविश्लेषण के आधार पर व्यक्ति की समस्त क्रियाओ का मूल 'निबिडो' मे देखा है। उनके अनुसार काम ही व्यक्ति की समस्त क्रियाओ का सचालक है। उन्होने अचेतन मन को दमित वासना का केन्द्र माना है। किन्तु जैनेन्द्र काम को जीवन का अनिवार्य अग मानते हुए भी उसे फ्रायड की दृष्टि से स्वीकार नहीं करते ना ही उन्होने मन को चेतन, अचेतन, अवचेतन स्तरो मे विभाजित ही किया है। विश्लेषण के द्वारा व्यक्तित्व की समग्रता विनष्ट हो जाती है । तथा हार्दिक सवेदना के लिए भी कोई स्थान नही रहता । फ्रायड और जैनेन्द्र की दृष्टि मे मूल पार्थक्य जैनेन्द्र की प्राध्यात्मिकता के कारण उत्पन्न होता है। जैनेन्द्र ने अचेतन मन को भगवत्ता अथवा सत्य का केन्द्र माना है, पाप का पुज नही । इस प्रकार अचेतन द्वारा प्रेरित क्रियाए सत्योन्मुख होती है, कामोन्मुख नही । ____ मार्क्स की दृष्टि अर्थप्रधान है । उन्होने भौतिक-सुख-सुविधा के लिए ही अधिकाधिक धन वृद्धि तथा समता पर जोर दिया है। मार्क्स की दृष्टि मे अर्थ का समान वितरण अत्यधिक आवश्यक है । इस हेतु वे हिसात्मक क्रान्ति का सहारा लेना आवश्यक ही नही, अनिवार्य समझते है। किन्तु जैनेन्द्र साधन की शुद्धता के आधार पर प्राप्त होने वाले साध्य को ही स्वीकार करते है । वे रक्त
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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