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________________ जेनन्द्र का जीवन-दर्शन नही हे, वरन् कोई असीम सत्ता हे । 'होनहार' द्वारा ईश्वर के अस्तित्व की ही पुष्टि होती है। उनकी दृष्टि मे ब्रह्माण्ड को अादमी नही चला रहा है। जगतगति जिस नियम से चल रही है, वह निश्चय ही इस बरती नाम के ग्रह पर मनुष्य नाम का प्राणी नही है । वरन् उसका सृष्टा परमेश्वर है। जैनन्द्रजी सृष्टि को मानने के कारण सृष्टा को भी मानते है ।' विराट प्रकति की अनन्त क्रियाप्रो मे सूर्योदय और सूर्यास्त नदी के सतत् प्रवाह काल की अनन्तता के मूल मे ईश्वरीय शक्ति ही विद्यमान है, जो कि समस्त प्रकतिगत काय में एक अन्विति प्रोर सातत्य को उत्पन्न करती है। ईश्वर को तर्क द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता बुद्धिवादी विश्लेषणात्मक दृष्टि द्वारा ईश्वर को प्रखण्ड रूप में स्वीकार करने में असमर्थ होते है। तक के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने मे असमर्थ विचारक ईश्वर के होने मे ही सन्देह करते है । जैनेन्द्र की तो बढ आस्था है कि यदि 'अस्ति' शब्द किसी के लिए प्रयुक्त हो सकता है तो वह मात्र ईश्वर हे । 'हे' की अनन्तता में केवल ईश्वर ही समाया लगा है। नलिनेति कहकर भी उसके अस्तित्व को ही स्वीकार किया गया है। पाणो म ति नेति द्वारा सत्य से इन्कार नही, वरन् स्वीकार पर बल दिया जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार परमतत्व के लिए नेति से सही परिभाषा दुसरी नही हो सकती। उनकी दृष्टि मे नेति मे तत्व कुछ नही है, उसमे अर्थ है तो यह गय है कि मानवभाषा अपूर्ण है । और जो ज्ञात हे ज्ञातव्य सदा उसग गाग है। जो है वह नकार नही है। परमात्मा इन्कार तनिक भी नही। वह सब का सर्वया स्वीकार अनन्तर मे जैनेन्द्र के इन्ही विचारो की स्पष्टत मानक मिलती है। उनकी दृष्टि में ईश्वर प्रखण्ड ब्रह्म है तथा बुद्धि की परच म पर है। प्रत जानने के द्वारा हम उस जान नही सकते । इसीलिए अज्ञेय और अदृश्य को जानने और शब्दो मे व्यक्त करने की चेष्टा में व्यक्ति की अहता का प्राग्रह ही दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र के अनुसार ईश्वर व्यक्ति की चर्चा का विषय नही बन सकता । अस्तित्व स्वय मे प्रश्न नही होना चाहिए । प्रश्न हाता है जब १ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, १९६६, पृ० स० ६ ० । २ 'मै आस्तिक हू और सृष्टि को मानने के कारण स्रष्टा को भी मानता है।' --जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, १९६६, पृ० ३६४ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० ६८।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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