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________________ जैनेन्द्र ओर सत्य २८१ हो जाता है । जेनेन्द्र की दृष्टि में अद्वैत का क्षरण अथवा बिन्दु ही है जिसके लिए कामाकरण रे सगार मे व्याप्त है । उसी क्षणता के कारण आदमी प्रभाव पूर्वक जी पाता है । जाने-अनजाने उस क्षरण की अनुभूति द्वारा व्यक्ति ग्रह की गलाकर पना स्वास्थ्य प्राप्त करता है। जैनेन्द्र ने अपनी उपरोक्त मान्यता को के दान द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उनकी दृष्टि मे जिस प्रकार का को सूली पर चढने के समय भी परम सुख का अनुभव हुआ होता है, अपने शरीर पर प्राप्त होने वाली यातना मे भी उन्हे परम सुख की अनुभूति होती है। वह क्षरण उन्हें अपनी धन्यता तथा जीवन की सार्थकता का प्रतीत होता है । उनी प्रकार कामाकरण में परम पीडा का क्षरण ही, परम धन्यता का क्षण है । पि वे यह स्पष्टत स्वीकार करते है कि धन्यता का क्षण टिकता नही है, यही कारण है कि उसके प्रति आकर्षण बना रहता है किन्तु जब व्यक्ति की अनुभूति स्थायित्व ग्रहण कर लेती है, तब उसे आत्मिक सुख मिलता है और उस क्षरण की पुनरावृत्ति स्वत. ही निरर्थक हो जाती है । जैनेन्द्र की अति में 'स्व' के विसर्जन का यह मार्ग स्वत ही ग्रात्मोन्मुखता अथवा भगवत्प्राप्ति का प्रानन्द प्रदान करने में सक्षम होता है। इसीलिए जैनेन्द्र ने अपनाना के जीवन में प्राप्त होने वाले प्रचलतम श्राकर्षण के क्षरणो का निषेध नहीं किया है। 'एक रात' में जयराज सकल्पपूर्वक चलता है और एक बिन्दु का आकर्षण र पूर्वक अस्वीकार करना चाहता है, किन्तु उस बिन्दु का आकर्षण उसपर इतना हावी हो जाता है कि वही जीतता है और जय का सकल्प हारता है । जैनेन्द्र की हृष्टि में सकल्प के विरोध मे दृष्टिगत होने वाला पाप भी सत्य की स्वीकृति के मार्ग मे, उसकी स्थापना मे स्वत ही निर्मल हो जाता है। सुदर्शना के पति के घर से आने में जो पाप का शष्टिगत होता है वह गत्य में नहाकर पविन हो जाता है । प्रतत अर्थात् सुदर्शना की जय होती है और सकल्पपूर्वक चलने वाला जय पराजित होता है। जैनेन्द्र की ष्ट म पाप वह है जिससे व्यक्तित्व का कुछ अश पीछे हट रहा हो, किन्तु जहा सहज भाव से समग्र समर्पण की स्थिति हो, वहा चित्त मे विकार प्रथवा उत्तेजना नही आती । चित्त पर जोर तभी पडता है, जब दुराव का भाव मन में बना रहता है। जैनन्द्र की दृष्टि से पाप यदि कुछ है तो झूठ है। ग में बुराई नही हो सकती। उनके अनुसार सत्य के सामने झूठ कोकना ही पड़ता है। इस सबंध में उन्होने स्पष्टता से स्वीकार किया है कि 'अवार्ड गुझे मनाई में गर्भित दीखती है, इसीलिए अच्छा की जगह गच्चा पाप १. साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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