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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
के सबध पर किए गए विवेचन मे दर्शन को सबुद्धि प्रधान ही माना है। जैनेन्द्र का समग्र साहित्य उनकी अन्तश्चेतना का ही प्रतिफल है। उनके साहित्य मे दार्शनिकता की जो झलक दृष्टिगत होती है, उसमे उनकी आस्था
और हार्दिकता ही अन्तर्भूत है । उनके साहित्य का अवगाहन करने में यह विदित होता है कि साहित्य-सृजन के हेतु उनका पमुख प्रादर्श सत्य के साथ साक्षात्कार करना रहा है । सत्य आत्मा मे है । दर्शन शास्त्र का उद्देश्य सत्य के प्रति व्यक्ति की जिज्ञासा को शान्त करना है । जनेन्द्र दार्शनिक होने के साथ ही साथ साहित्यकार भी है। सत्य तो यह है कि वे लेखक होने के कारण ही दार्शनिक के रूप मे जाने जा सकते है । अतएव उनकी जिज्ञासा सूक्ष्म सत्य के साथ जगत् मे व्याप्त स्थूल अथवा व्यावहारिक सत्य का अनुभव करने के लिए प्रयत्नशील रही है । जैनेन्द्र का समग्र साहित्य सत्य की खोज और उसकी अभिव्यक्ति का ही प्रतिफल है। ___'दर्शन' शब्द स्वय मे इतना गूढ और गम्भीर भावबोधक बना दिया गया हे कि उसके उच्चारण मात्र के तद् स्थित विषयगत जाटिलता ओर तात्विकता सहज ही मानग-पटल पर अकित हो जाती है। सामान्यत लोगो की यह परिकल्पना रही है कि दार्शनिक जीवन की सहजता से पराङ्मुख होकर ब्रह्म, जीव, जगत् अोर माया आदि तात्विक विषयो पर विचार करने वाला व्यक्ति है। उसमे मानवीय प्रेम, सहानुभूति आदि की भावनाए सुप्तप्राय रहती है, किन्तु दार्शनिक को एक नीरस व्यक्ति समझना तथा दर्शन को जटिलता प्रदान कर अग्राह्य बनाना हमारी भूल है।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार समार के वैचित्र्य तथा प्रकृति की विराटता मे प्रतर्भूत रहस्य को जानने का प्रयास करता है। व्यक्ति-भेद के कारण दृष्टि-भेद होना भी स्वाभाविक ही है। जगत् की यथार्थता, ईश्वर के अस्तित्व, जीवन के द्वन्द्व के सबध मे प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है । वस्तुत दार्शनिक कोई विशिष्ट व्यक्ति नही है । वह भी सामान्य व्यक्तियो के सदृश्य ही मानव-समाज में जीवन व्यतीत करता है, समाज के दुख-सुख से अभिभूत होता है । सामान्य से सामान्य व्यक्ति का जीवन के सम्बन्ध मे एक दृष्टिकोण होता है, किन्तु सामान्यत सभी व्यक्तियो के दृष्टिकोण मे इतनी प्रौढता नही होती कि वे ससार को अपनी दृष्टि दान कर सके अथवा उनके विचारो से मानव जाति को एक नवीन चेतना मिल सके । दार्शनिक अपने विचारो और मान्यताप्रो को सुनियोजित रूप मे व्वक्त करता है । अतएव दार्शनिक और अदार्शनिक के मध्य कोई स्पष्ट सीमारेखा खीच देना सम्भव नही है। दर्शन जीवन के प्रति एक विशिष्ट दृष्टि का