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________________ जैनेन्द्र · जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण २६५ वस्तुत काल को विभाजित करके प्राप्त होने वाला सत्य सम्पूर्णता का प्रतिनिधित्व नही कर सकता। देश : अविभाज्य ___ काल की अनन्तता के सदश ही देश भी अविभाज्य है पूर्व और पश्चिम की सीमा का निरूपण मानव निर्मित है । मूलत. समस्त ब्रह्माण्ड एक है। इसपर कही से ऐसी कोई रेखा नही खिची जिसके द्वारा यह जाना जा सके कि अमुक स्थान पर एशिया अथवा योरप की सीमा समाप्त हो जाती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे इस तथ्य को विशेष रूप से विवेचित किया गया है । देश-विदेश की सीमाए व्यवस्था की दृष्टि से ही उपयुक्त है, किन्तु जब यही सीमा मानवता के हित पर कुठाराघात करती है तब घातक बन जाती है । व्यक्ति मानवीय गुणो का प्रतिनिधित्व न करके विशिष्ट देश अथवा राष्ट्र का प्रतिनिधि होता है । राष्ट्र के साथ 'स्व' और 'पर' का भेद उत्पन्न हो जाता है। 'स्व', 'पर' भेद द्वन्द्वात्मक सिद्ध होते है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'राज्य की हदबदी...मानो सहानुभूति के प्रकट सूत्रो को काटे-तोडे बिना नही होती उन सीमा-रेखाओ के आरपार के सम्बन्ध सहज मानवीय नही रह जाते, राष्ट्रीय के नाम पर विषम सदिग्ध बन जाते है । अतएव उनके साहित्य में राज्य से पर चर्चा करते हुए भी व्यक्ति की अखण्डता और अभगता के मूल्यो का निराकरण नहीं किया गया है। जैनेन्द्र के अनुसार जो ब्रह्माण्ड मे है वही पिड मे है । अत राष्ट्र और मानव-हित में अतर नही है। मानव नीति पर आधारित राजनीति ही ऐक्यमूलक हो सकती है, अन्यथा राजनीति का कार्य तो भेद-नीति पर ही चलता है । जैनेन्द्र के उपरोक्त आदर्श की झलक 'जयवर्धन' मे स्पष्टत दृष्टिगत होती है। जय की दृष्टि में पूर्व और पश्चिम दो नही है। उनमे नामगत भेद केवल सूचकमात्र है, अन्यथा दोनों एक है। विलवर हूस्टन के समक्ष भारतीय राजनीति के प्रादर्श को प्रस्तुत करता हुआ जय कहता है-'तुम मुझे पूर्व का कहते हो, पश्चिम क्यो मुझसे अलग है ? पश्चिम का यह मानना ही उसका दोष है ।...पूर्व पश्चिम सकेत भर है, सज्ञा नही है । जय दुनियां मे झाकना नहीं चाहता वह तो पारस्परिक प्रेम को ही महत्वपूर्ण मानता है। उसकी दृष्टि मे मानव का पक्ष ही विश्व का पक्ष है । जैनेन्द्र की दृष्टि में नक्शे पर खिंची रेखाए सत्य नहीं है, सत्य तो प्रेम है जो कि देश और काल की सीमा को पार करता १. जैनेन्द्रकुमार : 'राष्ट्र और राज्य', पृ० स० ३४ । २ जैनेन्द्रकमार · 'जयवर्धन', पृ० स० १६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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