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________________ जैनेन्द्र और मत्य २८३ देती है कि क्या तुम चाहते हो, लो---और हरिप्रसन्न सोचता है कि क्या में यही चाहता है और यह सोच कर उसके आत्मसम्मान को जो अपने लिए वह रखता था, उसे ठेस पहुचती है । उसे उद्दिष्ट की नग्नता मे अपना चित्र कामुक दिखायी देता है और प्रपनी कामुकता के चित्र को देखकर विपर्यस्थ हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार भोक्ता की स्थिति मे द्रष्टा मिट जाता है, पर द्रष्टा जाग्रत हो जाय तो भोक्ता का आधिपत्य समाप्त हो जाय । सुनीता की नग्नता के दर्पण मे हरिप्रसन्न अपने ही कामुक कप का द्रष्टा बन जाता है। इस प्रकार जैनेन्द्र की दृष्टि में प्रेम अपने-आप में ही प्रौषधि हे । शुद्ध प्रेम मे से स्वत ही उसका समाधान मिल जाता है । यदि सुनीता मे इतना गहरा आत्मविश्वास न होता, जिसके सहारे वह हरिप्रसन्न के समक्ष सच्चाई को प्रकट कर सकी थी तो सम्भवत हरिप्रसन्न का दमित मन जिन मार्गों से अपनी तुष्टि करता, वह सुनीता के सतीत्व को भी अपने मे लपेट लेता, किन्तु सत्यता जब सहज बन जाए तब समस्या उठने की सम्भावना नही रह जाती । प्रेम का समग्र और सहज होना अनिवार्य है । प्रेम : समग्र और सहज जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम की पूर्णता वही है, जहा समग्रता और सहजता है। सेक्स के प्रति जुगुप्सा का भाव सात्विक आनन्द की सृष्टि करने में असमर्थ होता है । उपन्यास और कहानियो मे दृष्टिगत सैक्स के प्रति यदि लेखक मे अनादर का भाव नही है, उसे हीन अथवा तिरस्कृत नही माना जा सकता । 'ग्रामोफोन का रिकार्ड' मे लक्षित काम भाव के प्रति लेखक मे अनादर का भाव नही है । इसलिए उसे पाप अथवा घृणा की दृष्टि से नही देखा जा सकता। पूर्ण कहानी मे जो सत्य निश्रत है, उसे 'काम' के आधार पर अवहेलनीय नही समझा जा सकता। कहानी की विजया के प्रति लेखक की पूर्ण सहानुभूति है। विजया के द्वारा जो अघटित घटित होता है, उसमे दोष नही है। स्त्री होने के नाते उसमे मातृत्व की प्रबल आकाक्षा है किन्तु पति की असमर्थता के कारण उसका मन आन्दोलित होता रहता है । उसे अपना स्वत्व बोझ स्वरूप प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में उसके घर आने वाले व्यक्ति के प्रति जो आकर्षण दृष्टिगत होता है, वह स्वाभाविक ही है। किन्तु घडी की 'टन्न' की आवाज उसकी चेतना को जागरूक कर देती है और वह अपने किए पर प्रायश्चित करने के लिए पति को छोड़कर चली जाती है। पति से दूर रहकर वह अपने को कष्ट ही देती है। १. गाक्षात्कार के अवगर पर प्राप्त विचार ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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