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________________ जनेन्द्र का जोवन दशन नही उठता। सृष्टि के समस्त क्रिया-कलापो का सिवाय प्रकृति के प्रोर कौन कारण हो सकता है।' जैनेन्द्र की प्रास्तिकता __जैनेन्द्रजी परम अास्थावान्, विचारक और लेखक है। नका समग्र जीवन अोर साहित्य ईश्वरीय गास्था और प्रेम के रग में रगाहमा है। उनकी आस्तिकता ही उनके साहित्य की आत्मा है, जो विषम में विराम मिति मे भी व्यक्ति को टूटने नही देती। अपने जीवन की विषम स्थितियो की विभिन्न खाई-खन्दको को पार करते हुए ही वह आज साहित्य के माननीय स्थल पर श्रासीन है। लेखक के जीवन का ही अधिकाश साहित्य मे अवतरित होता है। अपने जीवन की सत्यता को बह परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से कही-न-कही अवश्य ही पायित कर देता हे अथवा उसकी आत्मा मे अन्तर्भत सत्य स्वय भी यत्र-तत्र पकट हो उठता है। जैनेन्द्र के साहित्य मे त्याप्त मारया, गमर्पण ओर निमिमानिता तया भाग्यवादिता के मूत मे उसकी ईश्वर परायणता की प्रत्यक्ष मा. ग्टिगत होती है। जैनेन्द्र मानो एक साचा योर साहित्य उनकी माता का प्रमुख अग हे । साहित्य ही उनका भाव विभोरता की अभिव्यक्ति का उपादान बना है। उपन्यास, कहानी, निबन्नामादिको रचना उन्होन साहित्य-जगत् मे योगदान देने की अभिलाषा स न र स्वानुभूति की अभिव्यक्ति या ईश्वर-उपासना के रूप में की है। जैनेन्द्र की दृष्टि में ईश्वर को तर्क या विवाद द्वारा नहीं गिग किया जा सकता। विवाद मे 'मैं' की पुष्टि होती है, हमारी आस्तिकता ही नही । प्रास्तिकता तो निर्विवाद तथ्य है। ईश्वर को प्राप्त कर दी मानव की माकाक्षा भ्रम नही है, क्योकि अनादि काल में यह जिज्ञासा अब तक चली ग्रा रही है । यदि ईश्वर की खोज मानव का पागलपन होती तो कभी उतनी दर तक टिक नही सकती थी। 'हा, जो आस्तिकता टूट जाती है, वह मास्तिकता ही नही ।२ . अह के रहते हुए ईश्वर की प्राप्ति असम्भव है। ईश्वर द्वन्द्र मे नही है, वह तो दो के बीच ऐक्य मे है अथवा 'मैं' से विसर्जन म है। जैनेन्द्र की दृष्टि में 'बँद जब समन्दर में मिल जायगी तब सवाल ही कुछ नहीं रहेगा। पर यो बूद चाहे कितनी फैले, कितनी ही फूले समुद्रता उसके लिए अप्राय ही १ दा० राधाकृष्णन 'भारतीय दर्शन', दिल्ली, १९६६, पृ० २२८ (सवं मिन्द्रात सग्रह २ ५) २ जैनेन्द्रकुमार 'प्रस्तुत प्रश्न', दिल्ली, १९६६, पृ० १०८ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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