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________________ १०४ जनेन्द्र का जोवन-दर्शन अपरिग्रह ___ जैनेन्द्र ने अहिसा के अतिरिक्त अपरिग्रह, सेवा, त्याग आदि भानो को भी जीवन की वर्ममयता के लिए आवश्यक माना है। पहिसा मे ही अपरिग्रह गर्भित होता है। व्यक्ति से लेकर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक जो परिग्रही प्रवृत्ति देखने को मिलती है, वह मनुष्य की परिग्रही प्रवृत्ति का ही परिणाम है । अधिक से अधिक बटोरने की अभिलाषा से ही हम एक-दूसरे की वग्तु का अपहरण करते हे और इस छीन-झपट मे हिसा का प्रवेश स्वाभाविक हे । वस्तुत जीवन की अहिसात्मक नीति के लिए अपरिग्रहिता अनिवार्य है। जैन धर्म मे अति सचय की प्रवृत्ति का निषेध किया गया है और दिगम्बर सम्प्रदाय के सिद्धान्त इस दष्टि से बहुत ही कठोर है। उनकी अपरिग्रही दष्टि जीवन को बहुत ही सादा और नीरस बना देती है। बाह्य-शुष्कता मन की समस्त कोमल भावनाप्रो को नष्ट कर देती है किन्तु अहिसक के लिए सहृदय होना आवश्यक है। जैनेन्द्र प्राने जीवन और साहित्य मे मव्यम मार्ग को अपना कर चते है। उनके अनुसार ईश्वरोन्मुख को छोडकर किसी भी मार्ग की एकोन्मुखता • वाभाविक नही है। वर्म हृदय की वस्तु हे प्रत अपरिग्रह की भावना हृदय म प्रादुर्भूत होनी चाहिए, क्योकि प्राय बाह्य जीवन मे अपरिग्रही दिया देने से व्यक्ति की वस्तु के प्रति बहुत अधिक आसक्ति होती है। अत अनामक्त भाव से ग्रहण की गई कोई भी निधि व्यक्ति को उसके धर्म से नही गिरा सकती। जैनेन्द्र के अनुसार 'अपरिग्रह की कृतार्थता वस्तु के अछूते रहने में नही है, वस्तु के मध्य खुले रहने मे हे ।' वस्तुत जैनेन्द्र ने किसी भी सिद्वात का अन्धानुकरण नही किया है। उनकी अपरिग्रही प्रवृत्ति मे मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ के दर्शन होते है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य हे कि जब वस्तु या किसी प्रवृति पर अत्यधिक दबाव डाला जाता है तो उसमे विस्फोट होना स्वाभाविक होता है। जिस कार्य का अधिक से अधिक निषेव किया जाता हे उस कार्य की ओर उन्मुख होने के लिए हम अधिक लालायित रहते है। धन के या वस्तु के प्रतिनिपेव स उसकी कामना बढती ही जाती है। जैनेन्द्र के अनुसार हमारी प्रवृत्ति सहज होनी चाहिए। उनके अनुसार जैनियो की अतिअपरिग्रहता का ही परिणाम है कि आज अधिकाश जैनी निरपवाद भाव से वैश्यवर्गी है । जैन धम के मूत सिद्वात और जैनियो के वर्तमान जीवन मे बहुत अन्तर है और यह स्थिति स्वाभाविक ही हे । जैनेन्द्र के अनुसार यह प्रावश्यक नही कि जगल मे रहने वाला व्यक्ति १ जेनन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० ११० ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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