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________________ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन तथा व्यावहारिक पहलू को बहुत ही व्यापक और सूक्ष्मदृष्टि से विवेचित किया है। समस्त विचारो के मूल मे उनकी ईश्वरीय आस्था की स्पष्टत झलक मिलती है । उनके साहित्य मे अभिव्यक्त त्याग, भोग आदि भावो के मूल मे उनका पारमार्थिक दृष्टिकोण ही लक्षित होता है । जैनेन्द्र इस सत्य से पूर्णत अवगत है कि मृत्यु के आने पर व्यक्ति का सर्वस्व यही रखा रह जायगा और वह भी अपनी मजिल पर पहुच जायगा । जीवन के सारे रिश्ते नाते तथा समस्त सम्पदा मौत के आने पर व्यर्थ हो जायगी। जैनेन्द्र के अनुसार सत्य की प्राप्ति जीवन से पार जाने मे ही सम्भव हो सकती है। जीवन के पार जाने का एकमात्र यान मृत्यु ही है । मृत्यु मे व्यक्ति का अह नि शेष हो जाता है । 'उपलब्धि' मे लेखक ने इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि व्यक्ति के अह का स्वरूप नमक की डली के सदृश्य है। नमक की डली यदि समुद्र में डाल दी जाय तो वह उसी मे समाकर अस्तित्व शून्य (अहशून्य) हो जाती है, इसी प्रकार व्यक्ति का अह मौत के द्वारा विराट मे लीन हो जाता है । व्यक्ति शून्य मे समा जाता है । इस प्रकार निश्चय ही मौत यम का क्रूर आघात न होकर ईश्वर की कृपा ही है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी निजता को छोडकर समष्टि का बन जाता है। अन्यत्र उन्होने यह भी स्वीकार किया है कि जीवन की उलझन मे मौत समाप्ति की भाति आकर अच्छा ही करती है। जैनेन्द्र के पात्रो को मौत के अधेरे मे परमेश्वर के दर्शन होते है। मनुष्य के पास सबसे बडा सत्य यही है कि ईश्वर है और वह ( व्यक्ति ) नहीं है। इस सत्यता की पुष्टि मौत मे ही होती है, इसीलिए मौत सत्य है। १ क) 'एक दिन मौत आएगी और सब रह जाएगा।' --जैनेन्द्र की कहानिया, पृ० १६७ । ख) 'मनुष्य का निश्चय मौत नाम की वस्तु के आने पर रखा ही रह जाता है।' --जैनेन्द्रकुमार 'सुनीता', पृ० ३२ । २ अ) जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ३ (उपलब्धि), पृ० १५७ । ब) जैनेन्द्र की कहानिया 'मौत जिसे कहते है जान गया है वह तेरा ही हाथ है । ओ छलिया तू अधेरा बनकर इसी से आता है ताकि आखे तुझे न पहचाने।' पृ० १५८ । स) जैनेन्द्र की कहानिया, पृ० १२६ । 'मैं नही है क्योकि शून्य है और मैं शून्य हू । मैं कुछ नही हू यह अनुभूति ही मेरा सब कुछ है ।'
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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