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________________ ३०८ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन 'वह है, वह हे ।' शेर ।' इस प्रकार यह नही समझ पाते कि जगल कही बाहर या दूर नही है, वरन् उनकी समष्टि मे ही जगल है । अन्त मे एक विज्ञ पुरुष बडदादा के सहयोग से उन्हे सत्य का बोध कराने में सक्षम होता है । इस प्रकार उन्हे यह बोध होता है कुल है, कुछ नही है, उनका यह समझना कि मै बास हू, मै सेमर हूँ, भ्रम है । सत्य का बोध होते ही बडदादा कह उठते है'सब कही है । सब कही हे और हम ? 'हम नही, वह है ?" इस प्रकार सत्य की नुभूति समग्रता मे ही सम्भव हो पाती है । सत्यखण्ड मे भी अर्न्तभूत है, किन्तु खण्ड अथवा अश कोई सत्य मानकर चलने मे ग्रामवादिता लक्षित होती है । इस तथ्य के द्वारा यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'मैं' अथवा अशत सत्य नही है, सत्य 'वह' है अर्थात् ईश्वर है जो कि पूर्ण है । जैनेन्द्र की उपरोक्त प्राध्यात्मिक दृष्टि उनके पात्रो के व्यावहारिक जीवन भी लक्षित होती है । जैनेन्द्र के साहित्य में लक्षित व्यक्तित्व की समग्रता के आदर्श मे भी यही सम्पूर्णतावादी दृष्टि के ही दर्शन होते है । जीवन का कोई भी पक्ष खडित होकर निषेध द्वारा पूर्ण नही हो सकता । जीवन की पूर्णता सत्असत् की स्वीकृति द्वारा उत्तरोत्तर उससे पार उठने मे हे । जैनेन्द्र के अनुसार सत्य अविभाज्य है, अतएव इसे खण्डित करके समझने का प्रयत्न मिथ्या है। उनका विश्वास है कि ग्रह के द्वारा व्यक्ति अखण्ड सृष्टि से नही वरन् वस्तु के राग से होता है ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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