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________________ जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार १५६ प्रचेतन मन व्यक्ति की काम वासना को सशोधित करके ही चेतन स्तर पर आने की अनुमति देता है । फ्रायड के अनुसार इगो का प्रतिनिधित्व प्रत्यक्ष-बोध (परसेप्शन) द्वारा होता है यथा अचेतन मन (इड) का प्रतिनिधित्व मूल प्रवृतिया करती है । अचेतन के सतही अर्थात् ऊपरी भाग मे स्थित इच्छाए सदैव चेतन स्तर पर पाने के हेतु प्रयत्नशील रहती है और अवसर मिलने पर अभिव्यक्त हो जाती है, किन्तु पूर्णत दमित इच्छाए अपने वास्तविक रूप मे अभिव्यक्ति प्राप्त करने में असर्मथ होती है। चेतन और अचेतन मन के संघर्ष के परिणाम स्वरूप सुपर इगो की उत्पति होती है। ___ फ्रायड ने व्यक्ति के अचेतन मन पर ही विशेष रूप से कार्य किया है। अचेतन मन मे दो प्रकार की मूल प्रवृतिया (इनस्टिन्क्ट ) सदैव संघर्ष रत रहती है कामेच्छा अथवा स्वरक्षा की प्रवृति और दूसरी विनाश की(डिस्ट्रक्टिव)प्रवृति । चेतन जगत मे यही प्रवृतिया प्रेम (लव) और घृणा के सशोधित रूप मे व्यक्त होती है । ये दो प्रवृतिया ही फ्रायड की दृष्टि मे व्यक्तित्व के निर्माण की आधारशिला है। कामेच्छा व्यक्ति की प्रबलतम प्रवृति है, उसके पूर्ण न होने पर व्यक्ति अपने 'पाब्जेक्ट' को विनष्ट करने लगता है । सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से फ्रायड ने कामेच्छा के उदात्तीकरण (सब्लीमेशन) को आवश्यक बताया है जिससे व्यक्ति कला, सगीत आदि मे अपनी प्रवृतियो को स्थानान्तरित करके स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण करता है। फ्रायड और जैनेन्द्र फ्रायड के विचारो का स्पष्ट विवेचन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि जैनेन्द्र के साहित्य मे फ्रायडीय मनोविश्लेषण का पूर्णत निषेध नही किया जा सकता, यद्यपि यह सत्य है कि दोनो के विचारो के मूल मे गहरा अन्तर है । फ्रायड वस्तुवादी विचारक है और जैनेन्द्र अध्यात्मवादी । फ्रायड और जैनेन्द्र मे यदि साम्य है तो वह काम-प्रवृत्ति की स्वीकृति मे ही दृष्टिगत होता है। जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे स्त्री-पुरुष सम्बन्धी विवेचन की अतिशयता को दृष्टि मे रखते हुए नि सन्देह ही जैनेन्द्र के साहित्य पर फायड के प्रभाव को स्वीकार किया जा सकता है । तात्विक दृष्टि से जैनेन्द्र और फ्रायड के विचारो मे अन्तर है। जैनेन्द्र ने अह को बाह्य जगत और अन्त जगत के मध्य द्वार रूप मे स्वीकार किया है। उनके अनुसार प्रात्मजगत का वस्तु जगत से घनिष्ठ सम्बन्ध है। वस्तु जगत मे कर्मशील व्यक्ति ही आत्मोन्मुख होकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है । अन्तश्चेतना से प्रेरित होकर कर्म करता हुआ व्यक्ति पुन. आत्मोन्मुख होकर मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करता है। व्यक्ति अथवा
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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