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________________ १८० जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन जैनेन्द्र को सामाजिक दृष्टि जैनेन्द्र यथार्थान्मुखी आदर्शवादी लेखक है । आदर्श की धरती पर पैर टेक कर ही वे यथार्थ के उन्मुक्त परिवेश मे सचरण करते है। भारतीय संस्कृति के मूलभूत आदर्शों की रक्षा करते हुए ही उन्होने अपने कथा साहित्य की रचना की है । जैनेन्द्र के अनुसार अपनी संस्कृति और सभ्यता का उन्मूलन करने वाला समाज कभी भी प्रगति नही कर सकता। आज पाश्चात्य सभ्यता के प्रभावस्वरूप सामाजिक मर्यादाए समाप्त होती जा रही है। जैनेन्द्र के साहित्य मे स्त्री-पुरुष स्वातन्त्र्य का जो स्वरूप दृष्टिगत होता है, उससे यह अनुमान नही लगाया जा सकता कि जैनेन्द्र ने नितान्त स्वच्छन्दतावादी दृष्टिकोण को अपनाकर सामाजिक बन्धन को शिथिल किया है । जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे अपनी स्वतन्त्र-दृष्टि द्वारा जीवन के प्राकृतिक और मूलभूत सत्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। सत्य का समाज और मर्यादा से कोई सम्बन्ध नही है। जैनेन्द्र ने समाज के परिप्रेक्ष्य मे मानव-जीवन को जिस रूप मे देखा है, उसके मूल मे स्त्री-पुरुष का अर्धनारीश्वर भाव ही प्रधानत मुखरित हुआ है। स्त्री-पुरुष स्वय मे अपूर्ण है। अत उनका प्ररस्पर आकर्षण स्वाभाविक ही नही, अनिवार्य भी है। सृष्टि के आरम्भ से ही अर्धनारीश्वर की भावना मानव जीवन में व्याप्त रही है । रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रन्थ इसके साक्ष्य है।' प्रेमचन्द-युग के अन्तिम चरण मे साहित्य और समाज मे नवीन मान्यताओ को लेकर भावाभिव्यक्ति का प्रयास हुआ है। प्रेमचन्द की सामाजिक दृष्टि । सुधारवादी थी। समाज की आर्थिक विषमता से ऊच-नीच के भेद-भाव लेकर अनेको समस्याए उत्पन्न हो गई थी। उन्होने घरेलू जीवन से लेकर राजनैतिक परिवेश में व्याप्त द्वन्द्वो का विस्तृत विवेचन किया है । जीवन मे उत्पन्न विविध समस्यानो की भाति नैतिकता और अनैतिकता का प्रश्न भी समाज-सापेक्ष्य ही है। समाज मे जो प्रश्न नैतिक और अनैतिक का रूप लेता है, साहित्य मे वही श्लील और अश्लील रूप मे विवेचित किया गया है । समाज मे स्त्री-पुरुष सम्बन्ध निर्वैयक्तिक न होकर सम्बन्ध-सापेक्ष्य रूप में स्वीकार किया जाता है। स्त्रीपुरुष परस्पर भाई-बहन, माता-पिता, पति-पत्नी आदि सबध सूत्रो मे आबद्ध होते है। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास और कहानियो का कथानक पारस्परिक रिश्ते-नातो से ही ढूढा है । जैनेन्द्र ने पति-पत्नी, व भाई-बहन आदि सम्बन्धो १ 'सीता-राम', 'राधाकृष्ण', 'शिव-पार्वती' की अर्धनारीश्वर की मूर्ति इस का प्रमाण है।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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