Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 315
________________ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन है। क्योकि उनके चिन्तन का आधार तो बाह्य-परिवेश ही था । अन्तर केवल उसकी अभिव्यक्ति के कारण ही उत्पन्न होता है। ___जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे मनुष्य द्वारा विकसित जीवविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्म प्रादि का मानव जीवन की सापेक्षता मे विवेचन किया है। मानव जीवन की पूर्णता, परिस्थिति और परिवेश की सापेक्षता मे ही सम्भव हो सकती है, किन्तु परिवेश बाह्य रूप तक ही सीमित है । बाहा रूप पर सामान्यत सभी की दृष्टि पडती है। किन्तु महत्ता उसकी है, जो स्थिति के मूल मे अदृश्य सत्य को पकडने की चेष्टा करता है और बाह्याकर्षण मे ही अपने को परिमित नही रखता । जैनेन्द्र ने परिवेश रूप पल्लव ओर शाखाप्रो के रूपाकार मे फसकर उसके मूल की अवहेलना नहीं की है। यह आवश्यक नही कि जीवन अथवा साहित्य का उत्स आकर्षक ही हो, किन्तु सत्य, सत्य है। उसके सुन्दर-असुन्दर, भले-बुरे होने से कोई अन्तर नही आता । यह सत्य ही जैनेन्द्र के समग्र साहित्य मे सहज रूप से अभिव्यक्त होता हुआ दृष्टिगत होता है। यदि हम जैनेन्द्र के साहित्य का सूक्ष्म अवगाहन करे तो उसके मूल में हमे एकमात्र सत्य का स्वर ही व्वनित होता हुआ दृष्टिगत होगा । समस्या छोटी हा, या बडी, शाश्वत हो या चिरन्तन, घर की हो या बाहर की- सब के मूल में उन्होने सत्य को ग्रहण करने की चेष्टा की है। ___सर्वप्रथम जैनेन्द्र के विचारो का मूल स्वरूप हमे उनकी जीववैज्ञानिक दृष्टि मे उपलब्ध होता है । मानो वही रूप उनके समस्त साहित्य मे छाया हुमा है । सुप्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक डार्विन ने जीवन का विकास पशु से माना है। जैनेन्द्र डार्विन के इस विचार से सहमत है, किन्तु वे वैज्ञानिक ही नही है, दार्शनिक भी है। उनकी दृष्टि वर्तमान तक ही सीमित न रहकर उसके पूर्व अथवा उसके उत्स को जानने की चेष्टा करती है । जैनेन्द्र ने सम्बुद्धि के द्वारा आविन के विचारो से एक कदम पीछे हटने की चेष्टा की। उन्होने पशुता के मूल मे सत्य को देखने का प्रयास किया। जैनेन्द्र ने विकासवादी पशुत्व के मूल मे देवत्व को हिसा मे अहिसा की स्थिति के आधार पर स्पष्ट करने की चेष्टा की है। पशुत्व के मूल मे देवत्व की भावना उनके साहित्य मे सर्वत्र दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र ने जीवन के शाश्वत सत्यो यथा ---ईश्वर, जीव, जन्म, मृत्यु आदि के सम्बन्ध मे आत्मानुभूति सत्य का प्रकटीकरण किया । जैनेन्द्र की दृष्टि में ईश्वर सत्य ही नहीं हे, वरन् वही एकमात्र सत्य है । उससे परे सब मिथ्या हे । सत्य अद्वैत है । वह चर्चा का विषय नही बन सकता किन्तु व्यावहारिक जीवन मे वही सत्य ईश्वर के नाना रूपो मे ग्रहण किया जाता है । भक्त अपनी अनुभूति के अनुकूल उसे प्रतिमा प्रदान करता है । जैनेन्द्र की ईश्वरीय आस्था

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