Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 314
________________ उपसंहार जैनेन्द्र के वहद् साहित्य-सागर मे अवगाहन करने के अनन्तर हमे जो कतिपय विचार-भौक्तिक प्राप्त होते है, वे कथा-साहित्य-जगत मे अपना विशिष्ट स्थान रखते है । जैनेन्द्र के साहित्य मे उपलब्ध ये भौक्तिक उनके अपने ही है, किसी से उधार लिए हुए नही है। यही है उनकी वैचारिक विशिष्टता का मूलाधार । उन्होने अपनी भावाभिव्यक्ति में न तो परम्परा से बधने की ही चेष्टा की है और न ही सायास उससे सम्बन्ध तोडने का प्रयत्न किया है। उनकी भाव और विचारगत नवीनता अन्त प्रसूत होने के कारण आग्रह से सर्वथा उन्मुक्त है। जैनेन्द्र के साहित्य का उत्स उनकी अन्तर्व्यथा ही है । अभावजन्य वेदना ही उनके साहित्य का उत्स बनी है। वस्तुत 'स्व' से 'पर' की ओर अर्थात् अपनी निजता को लेकर परता की ओर उन्मुख होने के कारण उनके साहित्य मे प्रात्मानुभूति . और सत्य' का समावेश सहज रूप से ही होता गया है। बाह्य-परिवेश उनके बोद्धिक धरातल से टकरा कर ही रह गया है, वरन् वह अन्तश्चेतना के रस का सस्पर्श करता हुआ पुन. साहित्य के माध्यम से बाह्यमुखी हुआ है। " ___ जैनेन्द्र से पूर्व साहित्य-सृजन की प्रक्रिया बाह्य स्थिति और समस्यायो को लेकर गतिशील हुई थी। सम-सामयिकता के प्रभाव के कारण उनकी रचनाओ मे समय से ऊपर उठने की प्रवृत्ति दृष्टिगत नही होती, किन्तु जैनेन्द्र का साहित्य काल से जडित नही है । उसमे देश और काल से ऊपर उठकर मानव जीवन के शाश्वत और चिरन्तन सत्यो की अभिव्यक्ति दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र ने अन्तश्चेतना को प्रमुखता देते हुए भी बाह्य स्थितियो की अवहेलना नहीं की

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