Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 312
________________ जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण ३०७ चतुष्कोण को देख लेता है, मानो वह त्रिकोण या चतुष्कोण वहा बिन्दुओ के अस्तित्व मे आने से पूर्व ही किसी रहस्यमय रूप मे उपस्थित हो और रेखाओ को सार्थकता प्रदान करते हो ।" जैनेन्द्र की कहानियों और उपन्यासो मे प्राप्त होने वाली रिक्तता को भी खण्डित रूप मे न देखकर भावगरिमा से युक्त करके रूप में देखा गया है । उपाध्याय जी के अनुसार रिक्तता मे ही जैनेन्द्र के साहित्य का वैशिष्ट्य गर्भित है ।' उपाध्याय जी की दृष्टि में गेस्टाल्टवादी दृष्टि से देखने पर - - टुक : नही दीख पडते है, परन्तु उनके बीच मे जो व्यवस्था है, पारस्परिकता है, वही सबसे पहले दीख पडती है । उसी व्यवस्था और परस्पर बद्धता के मध्य पडे दीखने के कारण वे खण्ड अपूर्ण प्रश खण्डित नही, पर व्यवस्थित और संगठित रूप में दीखते है । " जैनेन्द्र को खण्ड दृष्टि और गेस्टाल्ट जैनेन्द्र के साहित्य मे सम्पूर्णतावादी दृस्टिकोण का प्रभाव पूर्णत दृष्टिगत होता है, तथापि जैनेन्द्र का चिन्तनपक्ष किसी वाद - विशेष से परिबद्ध नही है । उनके गाहित्य से प्राप्त होने वाला सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण उनकी प्रास्तिकता के स्पर्श से मनोवैज्ञानिक तथ्य न रहकर प्राध्यात्मिक विषय बन जाता है । गेस्टाल्ट ने वस्तु को प्रकार से भिन्न रूप में समझने की चेष्टा नही की है । उनका चिन्तन वस्तुगत है, किन्तु जैनेन्द्र के साहित्य मे सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण की झलक उनकी प्राध्यात्मिक दृष्टि के सन्दर्भ मे ही देखी जा सकती है। इस दृष्टि से उनकी 'तत्सत' कहानी बहुत ही उपयुक्त प्रतीत होती हे । 'तत्सत' कहानी में प्रत्येक वृक्ष अपने सम्बन्ध मे इतना ग्रहनिष्ठ है कि वह 'स्वय' को समष्टि की सापेक्षता में वन अथवा जगल के रूप में स्वीकार करने में असमर्थ होता है । हजार चेष्टा करने पर भी उन्हें यह समझ मे नही श्राता कि वन क्या हे ? वे परस्पर विवाद करते हुए कहते हे — 'मै जंगल हूं। तब बबूल कौन ?" इसी प्रकार बास कहता है- 'झूठ है 1 क्या मै यह मानू कि मै बास नही, जगल हैं, मेरा रोम-रोम कहता है, मै बास हूँ ।' 'और मै घास " और मै 1 १. डा० देवराज उपाध्याय 'जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक अध्ययन', पृ० स० ११५ । २. डा० देवराज उपाध्याय 'जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक अध्ययन', पृ० स० १२१ । ३. डा० देवराज उपाध्याय 'जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक अध्ययन', पृ० स० १२१ ।

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