Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 311
________________ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन आधार पर हम उन्हे ज्ञाता से अधिक एक द्रष्टा के रूप में स्वीकार कर सकते है । ज्ञाता होने मे ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत बना रहता है। किन्तु अन्र्तबुद्धि के सहारे सत्य को जानने मे लीनता का भाव लक्षित होता है।' सत्यबोध श्रद्धामूलक जैनेन्द्र के साहित्य मे श्रद्धा का भाव विविध रूपो मे अभिव्यक्त हुआ है। इनकी दृष्टि मे श्रद्धा ऊपर से थोपी नही जाती, वह तो 'मर्म की ओर से शायद व्यथा है । 'व्यक्ति, व्यक्ति मे ज्ञान का दम्भ तो हो ही नहीं सकता। श्रद्वा के कारण वह केवल समर्पित ही होता है।' 'अनन्तर' मे ज्ञान और विज्ञान के ऐक्य के लिए श्रद्धा की अनिवार्यता पर बल दिया है। श्रद्धा के ऐक्य से ज्ञान और विज्ञान परस्पर पूरक हो सकते है। श्रद्धा ऐक्यमूलक है। वह व्यवच्छेद पर आश्रित नही है। जैनेन्द्र का अटूट विश्वास है कि जो जानने मे उपलब्ध नही हो सकता वह विनम्र श्रद्धा के द्वारा सहज हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार न्यूटन को गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का बोध विश्लेषणात्मक बुद्धि से नहीं, वरन् सबुद्धि से प्राप्त हुना था, जिसे हम प्रज्ञा भी कहते है। व्यर्थ प्रयत्न मे चिन्ता मन को सत्य का बोध श्रद्धा से झुक जाने और समर्पित होने मे ही प्राप्त होता है। श्रद्धालु के हृदय मे ज्ञाता और ज्ञेय का पार्थक्य मिट जाता है किन्तु बौद्धिक ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय के पार्थक्य पर ही आधारित होता है। गेस्टाल्ट मनोविज्ञान जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त जीवन सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को गेस्टाल्ट मनोविज्ञान की समकक्षता मे विवेचित किया जा सकता है । डा० देवराज उपाध्याय ने जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक विवेचन करते हुए उन्हे गेस्टाल्टवादी मनोविज्ञान की समकक्षता मे ही प्रस्तुत किया गया है। उनके अनुसार जैनेन्द्र का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण गेस्टाल्ट के सम्पूर्णतावाद से अभिन्न है । उपाध्याय जी की दृष्टि मे 'गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिक वरतु को आकार से भिन्न नही देखता, तीन या चार बिन्दुप्रो को देखते ही वह एक त्रिकोण या १ 'जब हम किसी कारण अपने को सर्वथा बिसरे रहते है, मानो शून्य हो जाते है, चैतन्य हममे सोया नही रहता, पर प्रवृत्त भी नहीं होता और केवल जाग्रत भर रहता है, तब सबुद्धि काम कर जाती है।' -जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ६१५ । २ जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० १००।

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