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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन साहित्य इस सत्य की अभिव्यक्ति कराने में समर्थ है। उनके पात्रो की पीडा हमसे छिपी नहीं है। मृणाल और कल्याणी अपनी पीडा से स्वय ही व्यथित नही होती, वरन् पाठको के हृदय मे भी एक गहरी टीस उत्पन्न करने मे सक्षम होती है।
सृष्टि-प्रखण्ड
साहित्य, कला और संस्कृति का उत्स विभाजन मे न होकर ऐक्य मे ही समाहित है । जैनेन्द्र ने सृष्टि के मूल मे गर्भित सत्य की इतनी अकाट्य अभिव्यक्ति की है, जिसे स्वीकार किए बिना कोई भी सृजन-प्रक्रिया पूर्ण और
आत्मिक नही हो सकती । 'सृष्टि वहा से है जहा आदमी लीन हो जाता है, जहा वह अपनी विभक्ति भूल जाता है। जहा वह न अच्छा रहता है, न बुरा रहता है। जहा वह बटा नही होता, एकाग्र और समग्र हो जाता है । जहा वासना और भावना मे प्रखरता नही रह जाती । जहा व्यक्ति अपने को पूरा अगीकार करता और फिर पूरा-का-पूरा निछावर कर डालता है। जहा अपने किसी अश को पीछे रोकता नही और सर्वांश को स्वाहा करके धन्य हो जाता है।' 'जैनेन्द्र के उपरोक्त कथन मे उनके चिन्तन का सार स्पष्टत दृष्टिगत होता है । उनके साहित्य मे इन्ही तत्वो को जीवन मे घटित होते हुए दर्शाया गया है। उनकी दृष्टि मे सृष्टि ज्ञान मे से न होकर अबोधता मे से ही सम्भव हो सकती है । ज्ञान मे विभाजन है। विश्व की महान् प्रतिभाए स्वीकार और समन्वय के मार्ग का अनुसरण करने के कारण ही सम्भव हो सकी है । जैनेन्द्र का दृढ विश्वास है कि विभक्त मानसिकता मे से बने हुए मनमाने आदर्शों के नाम पर कुछ साधना करते हुए जो निस्तेज, निष्प्राण और खण्डित व्यक्तियो के नमूने नीति और धर्म के क्षेत्र मे देखने में आते है, सो इसी कारण कि उनकी वफादारी जीवन और जगत के प्रति न होकर सिद्धातो के प्रति होती है। जीवन मे पूर्णता एकमात्र प्रेम और स्वीकारता मे से ही सम्भव है। प्रेम की सक्रियता परस्परता मे ही लक्षित होती है।
साहित्यिक प्रक्रिया • संश्लेषणात्मक __ जैनेन्द्र की जीवन-दृष्टि सश्लेषणात्मक होने के साथ ही उनकी साहित्यिक प्रक्रिया भी सश्लिष्टता से अनुप्राणित है । जीवन की अखण्डता को बुद्धिप्रसूत
१ जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत पृ० स० २६० । २ जैनेन्द्रकुमार . 'इतस्तत.', पृ० २६०-२६१ ।