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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
अतृप्ति और असन्तुष्टि अधिकाधिक बढती जाती है । ऐसे व्यक्तियो द्वारा पाप का भय सदैव ही बना रहता है । भय के कारण होने वाले आचरण मे सहजता का अभाव रहता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्तित्व का खण्डित रूप मान्य नही है । उनके साहित्य मे बडे-से-बडे नेता भी प्रवृत्ति के मार्ग से महान बने है । जब कभी निवृत्ति के द्वारा उन्होने त्याग और तपस्या के द्वारा अपने जीवन को सुखाने की चेष्टा की है तो उन्हे पराजय ही मिली है । जैनेन्द्र के पात्र सत्य के समक्ष नतमस्तक होते हुए देखे जाते है । उनके साहित्य मे चाहे कोई भी व्यक्ति हो, वह अपनी अन्तस् की तृषा को तृप्त किए बिना कभी भी सहज नही हो पाता । हठात् अपनी अन्तश्चेतना के सत्य को ठुकराकर वह क्लीव ही बनता है, महान नही । देश के वरिष्ठ नेताओ के प्रति सामान्यतया हमारे मन मे आदर का भाव होता है, किन्तु जब कभी हम उनके व्यक्तिगत जीवन के रहस्य से परिचित होते है, तो हमारा आदर का भाव घृणा मे परिवर्तित हो जाता है और हम यह भूल जाते है कि नेता होने पर भी वह व्यक्ति है । उनमे मानवोचित गुण और दोषो का होना अनिवार्य है । मानवीय गुणो के निषेध द्वारा ब्रह्मचर्य साधना का प्रयत्न निरर्थक ही प्रतीत होता है । सत्य योग मे ही है, किन्तु भोग का निषेध करके होने वाली योग-साधना पूर्ण नही हो सकती । 'बाहुबली' मे बाहुबली के मन मे जो फास होती है, उसके निकाले बिना उसकी पूर्णता की प्राप्ति का प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध होता है । 'क पथा' कहानी मे सत्य का निषेध करके शरीर को तप द्वारा अधिकाधिक सुखाने से अन्तर की पिपासा शान्त नही होती और अन्तत उपरोक्त कहानी मे लालचन्द्र को विक्षिप्त होते हुए देखा जाता है । 'सुखदा' मे सुखदा को घर छोडकर बाहर जाने वाली नेत्री ही समझा जाता है किन्तु उसके अन्तर्द्वन्द्व को जानने की चेष्टा नही की जाती । प्रभाव के कारण वह बाहर की ओर आकर्षित होती है, किन्तु घर से उसका विरोध नही होता । वह चाहती है कि घर पर उसे प्रात्मिक विश्वास और प्रेम मिले किन्तु वह सम्भव नही हो पाता, जिसके कारण वह कही की नही रह पाती । 'मुक्तिबोध' और 'अनन्तर' मे पाप के भय के कारण तथा सामाजिक मर्यादा के हेतु स्त्री से दूरी का भाव लक्षित होता है । 'मुक्तिबोध' में 'प्रसाद' मन की दुर्बलता के कारण ही नीलिमा की नगी त्वचा के स्पर्श से क्रुद्ध हो उठता है और उसके आचरण के प्रति अपनी खीझ व्यक्त करता है । यदि 'प्रसाद' के भीतर नग्नता इतनी महत्वपूर्ण न होती तो उसमे नारी-शरीर के स्पर्श मात्र से झुझलाहट न प्रती और वह सहज बना रहता । वस्तुत जैनेन्द्र ने व्यक्ति के राजनीतिक जीवन
१ जैनेन्द्रकुमार 'मुक्तिबोध', पृ० ६५ ।