Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 306
________________ जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण के सदृश है । इस प्रकार जीवन तीन खण्डो मे बटा है। यदि तीनो मजिलो के बीच आवागमन की सुविधा न हो तो प्रत्येक खण्ड अपने मे कटा रह जायगा । यह स्थिति नितान्त अप्राकृतिक है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे, ‘मकान वह तभी काम दे सकता है, उसमे रहा-सहा जा सकता है, जब उन मजिलो मे आपस मे आवाज आयी हो। एक जीना हो जो तीनो को जोडता हो एक मुलाजिम हो जो तीनो का ख्याल और इन्तजाम रखता हो। जैनेन्द्र के अनुसार तिमजिले मकान का सफल स्वामी वही हो सकेगा, जो नीचे की मजिल का ध्यान उतना ही रख सके जितना ऊपर वाली का रखा जाय तो जीवन सुखमय और सहज हो सकता है। सत्व, रज, तमः सश्लिष्ट ___ गीता मे इन तीनो गुणो की सश्लिष्ट अभिव्यक्ति ही हुई है । कृष्ण अर्जुन के समक्ष उपदेश देते हुए बताते है कि जिस काल मे द्रष्टा तीनो गुरगो के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नही देखता है, अर्थात् गुण ही मे बरतते है, ऐसा देखता है और तीनो गुणो से परे सच्चिदानन्द स्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है, उस काल मे वह पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है । इस प्रकार गुरणो मे ही निवास है, किन्तु व्यक्ति का स्वय निर्गुण होना ही सार्थक है। जैनेन्द्र ने गीता की आध्यात्मिक दृष्टि को जीवन के व्यावहारिक धरातल पर विवेचित किया है। गुणो के वैभिन्य के कारण व्यक्तित्व खण्डित नही होता, वरन् गुण से तद्गत होकर वह पूर्ण ही होता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे आत्मा न सतोगुणी है न तमोगुणी । वह सबके ऊपर है। ___ मानव-व्यक्तित्व की पूर्णता उपरोक्त तीनो गुणो के सश्लिष्ट रूप की स्वीकृति में ही सम्भव है। जैनेन्द्र की दृष्टि में केवल सत्व की स्वीकृति और रज तथा तम के निषेध से व्यक्तित्व मे समग्रता नही आ सकती। रजस् और तमस् से अनबन करके जीवनयापन करने वाला व्यक्ति अपने आचरण मे कभी भी सहज नही हो सकता। मनोवैज्ञानिक सत्य है कि निषेधात्मक पहलू की ओर व्यक्ति की प्रवृत्तियो का झुकाव अधिक होता है। जिस और जितना दमन का भाव होता है, उतनी ही उसकी प्रतिक्रिया की सम्भावना बनी रहती है । यदि मानवीय प्रवृत्तियां सहज रूप से अपने क्षेत्र मे गतिशील होती हुई उत्तरोत्तर अकर्म अथवा शून्य की ओर बढ़ती है तो उनमे दमन का भाव न होकर सहजता और पूर्णता ही लक्षित होती है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे खण्डित व्यक्तित्व मे कृशता, १. जैनेन्द्र कुमार · 'इतस्तत', पृ० स० २५८ । २. श्रीमद्भागवद्गीता, अध्याय १४, श्लोक १६ ।

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